निम्नलिखित में से सर्वाधिक उपयुक्त शीर्षक का चयन कीजिए ( क ) उन्नति के सन्दर्भ में जीवन मूल्यों की प्रासंगिकता । ( ख ) मानव चित्त के आकर्षण निवारण में आदर्शों की भूमिका । ( ग ) समाज कल्याण हेतु धर्म और कानून का सहअस्तित्व । ( घ ) धार्मिक व सार्वभौमिक मूल्यों का एकीकरण ।
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व्यक्ति चित्त सब समय आदर्शों द्वारा चालित नहीं होता। जितने बड़े पैमाने पर मनुष्य की उन्नति के विधान बनाए गए, उतनी ही मात्रा में लोभ, मोह जैसे विकार भी विस्तृत होते गए, लक्ष्य की बात भूल गए, आदर्शों को मज़ाक का विषय बनाया गया और संयम को दकियानूसी मान लिया गया।
परिणाम जो होना था, वह हो रहा है। यह कुछ थोड़े-से लोगों के बढ़ते हुए लोभ का नतीजा है, परंतु इससे भारतवर्ष के पुराने आदर्श और भी अधिक स्पष्ट रूप से महान और उपयोगी दिखाई देने लगे हैं। भारतवर्ष सदा कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है।
धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है। यही कारण है कि जो धर्मभीरु हैं, वे भी त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते। इस बात के पर्याप्त प्रमाण खोज जा सकते हैं कि समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो भी होता रहा हो, भीतर-बाहर भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म कानून से बड़ी चीज़ है। अब भी सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं।