Hindi, asked by bachchiarora, 5 months ago

निम्नलिखित विषयों पर लगभग सौ शब्दों में अनुच्छेद लिखिए -
क) उभरती इमारतें, घटती भावनाएँ​

Answers

Answered by kkaushal444
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Answer:

किसी विद्वान ने ठीक ही कहा कि 'भावना ही मनुष्य का जीवन है, भावना ही प्राकृतिक है, भावना ही सत्य और नित्य है।' मनुष्य का जीवन प्रायः भावनाओं से संचालित होता है। इच्छाएँ और भावनाएँ जिधर उसे बहा ले जाती हैं, उधर ही वह बहता रहता है। पंचतंत्र में भी कहा गया है कि 'मंत्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, औषध और गुरु में जैसी भावना होती है, वैसे ही सिद्धि मिलती है।' भावना में बुद्धि और तर्क का कोई स्थान नहीं है।

एक कहावत भी प्रचलित है कि 'कर्मों की ध्वनि शब्दों से ऊँची होती है।' भावना के वशीभूत होकर व्यक्ति प्रायः अपने कर्तव्यों से भटक जाता है जबकि कर्तव्य ही जीवन को अर्थ और महत्व प्रदान करता है। भावना से कर्तव्य श्रेष्ठ है।

डिजरायली ने कहा कि 'कर्म के बिना सुख नहीं मिलता।' भारतीय संस्कृति में भी कर्म को ही प्रधानता दी गई है और इसीलिए उन्हीं महापुरुषों को पूजा गया है, जिन्होंने भावना से ऊपर उठकर कर्तव्य को प्रधानता दी है। महर्षि वेदव्यास ने तो स्पष्ट कहा कि 'यह धरती हमारे कर्मों की भूमि है।' कर्तव्य मनुष्य के संबंधों और रिश्तों से ऊपर होता है।

टॉल्सटॉय के शब्दों में 'ईश्वर की इच्छा के अनुसार चलना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है।' देश की आजादी के आंदोलन के समय भी कई युवकों की अपनी भावनाएँ रही होंगी, उनके अपने सपने रहे होंगे, किंतु उन्होंने भी हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूम लिया। कर्तव्य को वरीयता दी। अतएव प्रत्येक व्यक्ति को शुभ कर्मों की ओर ध्यान देना चाहिए।

कैकेयी के षड्यंत्र के कारण भगवान राम को चौदह वर्ष का वनवास दिया गया और उन्होंने भी हँसते-हँसते उसकी कठिनाइयों को सहन किया। इसी प्रकार महाभारत के युद्ध में अर्जुन भी अपने सामने संबंधियों को देखकर विचलित हो गए थे, किंतु भगवान कृष्ण ने उन्हें प्रेरित कर अपने कर्तव्य पर आरूढ़ किया। हाथ में धनुष उठाने की प्रेरणा दी। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि भावना से कर्तव्य श्रेष्ठ है।

हमारे भीतर जैसी भावना होती है वैसा ही हम बाहर देखते हैं। सीता स्वयंवर के समय नगरवासियों ने राम और लक्ष्मण को अपनी-अपनी भावनाओं के अनुसार देखा। कुछ लोगों ने दोनों भाइयों के मनुष्यों के भूषण रूप और नेत्रों को सुख देने वाले के रूप में देखा तो विद्वान उन्हें विराटमय रूप में देख रहे थे।

यदि हम अपने परिवार, समाज और देश को सुख तथा समृद्धि की ओर ले जाना चाहते हैं तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वार्थ के परे कर्तव्य-पथ पर चलना ही पड़ेगा।

Explanation:

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