निम्नलिखित विषय पर दिए गए संकेत-बिन्दुओं के आधार पर लगभग 200 - 250 शब्दों में निबन्ध लिखिए :
(क) विद्यालयों की ज़िम्मेदारी - बेहतर नागरिक-बोध
•व्यक्तित्व निर्माण में विद्यालय का स्थान
• राष्ट्र और समाज के प्रति उत्तरदायित्व
•नागरिक अधिकारों-कर्तव्यों का बोध
Answers
हमें देता है सबकुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें। राष्ट्र के प्रति यह जिम्मेदारी का भाव ही किसी देश को महान बनाता है। यह भाव हमारे अंदर विद्यार्थी काल से ही होना चाहिए। समाज व राष्ट्र के प्रति सजगता का भाव, जिससे राष्ट्र परम वैभव को प्राप्त हो सके। विद्यार्थी के अंदर का यह भाव उसे भविष्य का जिम्मेदार नागरिक भी बनाता है।
विद्यार्थी जीवन मानव जीवन का स्वर्णिम काल होता है। जीवन के इस पड़ाव पर वह जो भी सीखता, समझता है अथवा जिन नैतिक गुणों को अपनाता है वही उसके व्यक्तित्व व चरित्र निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि विद्यार्थी जीवन मानव जीवन की आधारशिला है। इस काल में सामान्यत: विद्यार्थी सांसारिक दायित्वों से मुक्त होता है फिर भी उसे अनेक दायित्वों व कर्तव्यों का निर्वाह करना पड़ता है ।
Answer:
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
लाखों वर्षों से मधुमक्खी जिस तरह छत्ता बनाती आई है बैसे ही बनाती है । उसमें फेर-बदल करना उसके लिए संभव नहीं है । छत्ता तो त्रुटिहीन बनता है लेकिन मधुमक्खी अपने अभ्यास के दायरे में आबद्ध रहती है । इस तरह सभी प्राणियों के संबंध में प्रकृति के व्यवहार में साहस का अभाव दिखाई पड़ता है । ऐसा लगता है कि प्रकृति ने उन्हें अपने आँचल में सुरक्षित रखा है, उन्हें विपत्तियों से बचाने के लिए उनकी आंतरिक गतिशीलता को ही प्रकृति ने घटा दिया है ।
लेकिन सृष्टिकर्ता ने मनुष्य की रचना करने में अदूभुत साहस का परिचय दिया है । उसने मानव के अंतःकरण को बाधाहीन बनाया है । हालाँकि बाह्य रूप से उसे विवस्त्र, निरस्त्र और दुर्बल बनाकर उसके चित्त को स्वच्छंदता प्रदान की है । इस मुक्ति से आनंदित होकर मनुष्य कहता है - “हम असाध्य को संभव बनाएँगे ।” अर्थात् जो सदा से होता आया है और होता रहेगा, हम उससे संतुष्ट नहीं रहेंगे । जो कभी नहीं हुआ, वह हमारे द्वारा होगा | इसीलिए मनुष्य ने अपने इतिहास के प्रथम युग में जब प्रचंडकाय प्राणियों के भीषण नखदंतों का सामना किया तो उसने हिरण की तरह पलायन करना नहीं चाहा, न कछुए की तरह छिपना चाहा । उसने असाध्य लगने वाले कार्य को सिद्ध किया - पत्थरों को काटकर भीषणतर नखदंतों का निर्माण किया । प्राणियों के नखदंत की उन्नति केवल प्राकृतिक कारणों पर निर्भर होती है । लेकिन मनुष्य के ये नखदंत उसकी अपनी सृष्टि क्रिया से निर्मित थे । इसलिए आगे चलकर उसने पत्थरों को छोड़कर लोहे के हथियार बनाए । इससे यह प्रमाणित होता है कि मानवीय अंतःकरण संधानशील है । उसके चारों ओर जो कुछ है उस पर ही वह आसक्त नहीं हो जाता । जो उसके हाथ में नहीं है उस पर अधिकार जमाना चाहता है । पत्थर उसके सामने रखा है पर वह उससे संतुष्ट नहीं । लोहा धरती के नीचे है, मानव उसे बहाँ से बाहर निकालता है । पत्थर को घिसकर हथियार बनाना आसान है लेकिन वह लोहे को गलाकर, साँचे में डाल ढालकर, हथौड़े से पीटकर, सब बाधाओं को पार करके, उसे अपने अधीन बनाता है । मनुष्य के अंतःकरण का धर्म यही है कि वह परिश्रम से केवल सफलता ही नहीं बल्कि आनंद भी प्राप्त करता है।
Explanation:
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
लाखों वर्षों से मधुमक्खी जिस तरह छत्ता बनाती आई है बैसे ही बनाती है । उसमें फेर-बदल करना उसके लिए संभव नहीं है । छत्ता तो त्रुटिहीन बनता है लेकिन मधुमक्खी अपने अभ्यास के दायरे में आबद्ध रहती है । इस तरह सभी प्राणियों के संबंध में प्रकृति के व्यवहार में साहस का अभाव दिखाई पड़ता है । ऐसा लगता है कि प्रकृति ने उन्हें अपने आँचल में सुरक्षित रखा है, उन्हें विपत्तियों से बचाने के लिए उनकी आंतरिक गतिशीलता को ही प्रकृति ने घटा दिया है ।
लेकिन सृष्टिकर्ता ने मनुष्य की रचना करने में अदूभुत साहस का परिचय दिया है । उसने मानव के अंतःकरण को बाधाहीन बनाया है । हालाँकि बाह्य रूप से उसे विवस्त्र, निरस्त्र और दुर्बल बनाकर उसके चित्त को स्वच्छंदता प्रदान की है । इस मुक्ति से आनंदित होकर मनुष्य कहता है - “हम असाध्य को संभव बनाएँगे ।” अर्थात् जो सदा से होता आया है और होता रहेगा, हम उससे संतुष्ट नहीं रहेंगे । जो कभी नहीं हुआ, वह हमारे द्वारा होगा | इसीलिए मनुष्य ने अपने इतिहास के प्रथम युग में जब प्रचंडकाय प्राणियों के भीषण नखदंतों का सामना किया तो उसने हिरण की तरह पलायन करना नहीं चाहा, न कछुए की तरह छिपना चाहा । उसने असाध्य लगने वाले कार्य को सिद्ध किया - पत्थरों को काटकर भीषणतर नखदंतों का निर्माण किया । प्राणियों के नखदंत की उन्नति केवल प्राकृतिक कारणों पर निर्भर होती है । लेकिन मनुष्य के ये नखदंत उसकी अपनी सृष्टि क्रिया से निर्मित थे । इसलिए आगे चलकर उसने पत्थरों को छोड़कर लोहे के हथियार बनाए । इससे यह प्रमाणित होता है कि मानवीय अंतःकरण संधानशील है । उसके चारों ओर जो कुछ है उस पर ही वह आसक्त नहीं हो जाता । जो उसके हाथ में नहीं है उस पर अधिकार जमाना चाहता है । पत्थर उसके सामने रखा है पर वह उससे संतुष्ट नहीं । लोहा धरती के नीचे है, मानव उसे बहाँ से बाहर निकालता है । पत्थर को घिसकर हथियार बनाना आसान है लेकिन वह लोहे को गलाकर, साँचे में डाल ढालकर, हथौड़े से पीटकर, सब बाधाओं को पार करके, उसे अपने अधीन बनाता है । मनुष्य के अंतःकरण का धर्म यही है कि वह परिश्रम से केवल सफलता ही नहीं बल्कि आनंद भी प्राप्त करता है।