नानासाहब ने मनु को किससे लड़ने को कहा?
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नाना साहेब (जन्म १८२४ - १८५७ के पश्चात से गायब) सन १८५७ के भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार थे। उनका मूल नाम 'धोंडूपंत' था। स्वतंत्रता संग्राम में नाना साहेब ने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोहियों का नेतृत्व किया
Explanation:
धोंडू पंत) नाना साहब ने सन् 1824 में वेणुग्राम निवासी माधवनारायण राव के घर जन्म लिया था। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा ने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया और उनकी शिक्षा दीक्षा का यथेष्ट प्रबंध किया। उन्हें हाथी घोड़े की सवारी, तलवार व बंदूक चलाने की विधि सिखाई गई और कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान भी कराया गया।
28 जनवरी सन् 1851 को पेशवा का स्वर्गवास हो गया। नानाराव ने बड़ी शान के साथ पेशवा का अंतिम संस्कार किया। दिवंगत पेशवा के उत्तराधिकार का प्रश्न उठा। कंपनी के शासन ने बिठूर स्थित कमिश्नर को यह आदेश दिया कि वह नानाराव को यह सूचना दे कि शासन ने उन्हें केवल पेशवाई धन संपत्ति का ही उत्तराधिकारी माना है न कि पेशवा की उपाधि का या उससे संलग्न राजनैतिक व व्यक्तिगत सुविधाओं का। एतदर्थ पेशवा की गद्दी प्राप्त करने के सम्बंध में व कोई समारोह या प्रदर्शन न करें। परंतु महत्वाकांक्षी नानाराव ने सारी संपत्ति को अपने हाथ में लेकर पेशवा के शस्त्रागार पर भी अधिकार कर लिया। थोड़े ही दिनों में नानाराव ने पेशवा की सभी उपाधियों को धारण कर लिया। तुरंत ही उन्होंने ब्रिटिश सरकार को आवेदनपत्र दिया और पेशवाई पेंशन के चालू कराने की न्यायोचित माँग की। साथ ही उन्होंने अपने वकील के साथ खरीता आदि भी भेजा जो कानपुर के कलेक्टर ने वापस कर दिया तथा उन्हें सूचित कराया कि सरकार उनकी पेशवाई उपाधियों को स्वीकार नहीं करती। नानाराव धुंधूपन्त को इससे बड़ा कष्ट हुआ क्योंकि उन्हें अनेक आश्रितों का भरण पोषण करना था। नाना साहब ने पेंशन पाने के लिए लार्ड डलहौजी से लिखापढ़ी की, किंतु जब उसने भी इन्कार कर दिया तो उन्होंने अजीमुल्ला खाँ को अपना वकील नियुक्त कर महारानी विक्टोरिया के पास भेजा। अजीमुल्ला ने अनेक प्रयत्न किए पर असफल रहे। लौटते समय उन्होंने फ्रांस, इटली तथा रूस आदि की यात्रा की। वापस आकर अजीमुल्ला ने नाना साहब को अपनी विफलता, अंग्रेजों की वास्तविक परिस्थिति तथा यूरोप के स्वाधीनता आंदोलनों का ज्ञान कराया।