निष्पक्ष, स्वस्थ दुनिया का निर्माण पर निबंध
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Explanation:
सन्न 1978 में मैं धनबाद के पाटलिपुत्र मेडिकल कॉलेज के ऍम बी बी एस के फाइनल वर्ष में पढ़ रहा था। सुबह से रात तक हम छात्र कॉलेज तथा हॉस्पिटल में वार्ड के राउंड कई बार करते थे। मरीज़ों की दवाई से लेकर , उसकी फाइल और रिपोर्ट्स की ज़िमींदारी हमारी होती। कई बार तो हम दो तीन दिन तक लगातार ड्यूटी करते रहते थे। आप समझ ही सकते हैं हमारा क्या हाल होता होगा , पर कई प्रकार की बीमारी से ग्रस्त गरीब और लाचार लोगों की सेवा का जनून लिए हम काम में जुटे रहते।
हमारे देश की विडम्बना है की स्वास्थ्य सेवा के लिहाज़ से गरीब मरीज सबसे ज्यादा पिस्ता है। मैं यह देखकर हैरान रह जाता की हर वक़्त वार्ड भरे रहते और कई बार तो रास्ते में भी मरीज़ जमीन पर पड़े रहते। पर यह मजबूर जाते भी तो कहा ? प्राइवेट चिकित्सा का खर्चा यह कर नहीं पाते और सरकारी हॉस्पिटल में भीड़ इतनी की कई कई दिन उन के टेस्ट नहीं हो पाते और ऑपरेशन के लिए उन्हें कई दिनों तक इंतज़ार करना पड़ता।
आम तौर पर उन दिनों मलेरिया , दस्त रोग, पीलिया, टाइफाइड , टी बी , तथा ऐसी कई संक्रमित बीमारियां के हर आयु के मरीज़ दूर दूर के गांव से आते थे जहा चिक्तिसा नाम मात्र ही थी और अक्सर हॉस्पिटल आते आते वो गंभीर बीमारी की अवस्था में होते जो हमारे लिए किसी चुनौती से कम नहीं होती । हमारी पूरी कोशिश के बावजूद बहुत से बीमार बच नहीं पाते। कभी कभी तो ऐसा लगता था जैसे सभी गरीब गांव वासी हमारे हॉस्पिटल ही आये हो।
ऍम बी बी एस के बाद मेरी पंजाब के जिला जालंधर के एक गांव के डिस्पेंसरी में लग गयी। यहाँ पर संक्रमित बीमारियों के इलावा गैर संक्रमित रोग जैसे उच्च रक्तचाप , डायबिटीज तथा हृयदे रोग और कैंसर के रोगी भी मुझे दिखाने आते।
यु तो आज 40 वर्ष बाद सेहत सेवाएं पहले से बहुत बेहतर हुई है फिर भी गरीब मरीज़ अभी भी इलाज के लिए भटक रहा है। सरकारी हॉस्पिटल में तब भी भीड़ थी और आज भी है। फरक शायद इतना है की अब गैर संक्रमित रोगी पहले की उपेक्षा बहुत बढ़ गए है।