नोटबंदी की समस्य पर दो व्यक्तियों में संवाद
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इस बात में सन्देह नहीं कि नोटबन्दी वर्ष 2016 की सबसे बड़ी घटना थी और इसका हमारे समाज की अर्थव्यवस्था और राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ा है। यदि आप इस घटना को ममता बनर्जी, राहुल गांधी, अरविन्द केजरीवाल की नजरों से देखेंगे तो लगेगा देश में प्रलय आ गई है। इसके विपरीत यदि अरुण जेटली और स्वयं नरेन्द्र मोदी की नज़रों से देखेंगे तो लगेगा अब अच्छे दिन दूर नहीं। यदि आप नेताओं के भाषण छापने और इंटरनेट की जानकारी से दूर गाँव जाएं और किसान, मजदूर, छोटे व्यापारी से प्रत्यक्ष बात करें तो वह आप बीती बताएगा और वही यथार्थ होगा।
जब आप गाँव, शहर और कस्बों के लोगों से बात करेंगे तो पता चलेगा सब पर एक समान प्रभाव नहीं पड़ा है। किसान ने खेतों की बुवाई कर ली है, बच्चों को स्कूल भेजा है, सड़क पर भूखे-नंगे लोग नहीं दिखाई पड़ रहे हैं, अपराधों में कोई खास बढ़ोतरी नहीं है, आटा, दाल, चावल की मिलें काम कर रही हैं। मंत्रियों और अधिकारियों के लड़के जो शराब पीकर उद्दंडता कर रहे हैं वे न तो भूखे हैं और न नंगे। इतना जरूर है जिसके पास एक जोड़ी कपड़ा है वह दूसरी जोड़ी कपड़ा खरीदने की योजना नहीं बना रहा है, मकान बनाने या खरीदने का फिलहाल कोई विचार नहीं, गाय-भैंस खरीदने पर भी ध्यान नहीं। कुल मिलाकर विस्तार नहीं हो रहा लेकिन जीवन चलाने में संकट नहीं है।
सुदूर गाँवों में भी नोट भरे थैला लेकर शहरी धन्नासेठ घूमते रहते थे अब नहीं दिखाई पड़ते। जो जमीने 20-25 लाख रुपया प्रति एकड़ बिक रही थीं अब वह 10-12 लाख रुपया प्रति एकड़ की दर से बिक रही हैं उनका भी कोई ग्राहक नहीं क्योंकि अब भुगतान नकद में नहीं हो सकता। आप सम्पत्ति के रजिस्ट्रार के दफ्तर जाकर स्वयं देख सकते हैं और पूछ कर पता लगा सकते हैं। प्लाट और फ्लैटों के दाम निश्चित रूप से गिरे हैं यह आप को कोई भी बिल्डर बता देगा। यह तो पता नहीं कि लोगों ने सब्जी खाना कम कर दिया है या सब्जी का उत्पादन बढ़ा है लेकिन राहुल गांधी जैसे नेता जो सब्जियों के भाव बताया करते थे अब सब्जियों का नाम नहीं लेते क्योंिक सब्जियां सस्ती हो गई हैं।
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