नाथ
संभुधनु
भंजनिहारा होइहि केउ एक दास तुम्हारा।। कर
आयेसु काह कहिअ किन माहीं। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअलराई।।
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम् सो रिपु मोरा।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।।
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि
अवमान।।
बहु धनुही तोरी लरिकाई कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाई।।
येहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।
रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार।।
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