Nàab ki atmakatha par essay
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कहना मुश्किल है कि मेरी कहानी कहां शुरू हुई, मैं अस्तित्व में कैसे आई? दुनिया में मेरे आने की कोई खुशी मनी हो, तो मुझे उसकी खबर नहीं है। खुशी तो शायद मेरे लिखने वाले को भी नहीं हुई। मुझे हाथों में लेकर तेजी से पलटते हुए पहली चीज जो उसके मुंह से निकली, वह ‘च्च च्च’ के अनंतर अविश्वास, दर्द व गुस्से की ध्वनियां थीं। क्यों मैं इस संसार में आई, किसे मेरी जरूरत थी? कितने अरमान थे, विश्वविद्यालयों में यूं ही इठलाती, टहलती पहुंच जाऊंगी, पुस्तकालयों में लड़कियां मुझे देखकर जल मरेंगी, तुर्की से कोई युवा आलोचक, आंखों में चमक और होठों पर विस्मित हंसी लिए चला आएगा और रहस्य भरी तनी नजरों के हर्ष में फुसफुसाकर ऐलान करेगा, ‘यही तो वह किताब है, जिसे मैं खोजता फिर रहा था!’
कितने अरमान थे कि इस्तांबुल जाऊंगी, वहां से ठुमकती पेरिस पहुंचकर गलीमार्द की कुरसी पर पसरकर संस्कृति-नागर को सन्न कर दूंगी, फिर वहां से भागकर लंदन को बांहों में ऐसे भर लूंगी कि न्यूयॉर्क के सारे बुद्धि-रसिक-वणिक जलकर खाक होते, ढाक के पात होते रहेंगे! सब धरा रह गया। मैं इसी धरा पर धरी रह गई। ऐसा क्योंकर हो गया? मैं थक गई हूं। पक गई हूं। ताज्जुब होता है कि इतनी तकलीफों के बावजूद कैसे अभी तक छपी हुई हूं, पन्नों पर छितराए अक्षरों में बची हुई हूं, जबकि मेरे लिए सस्ती मारकिन की कुरती व एक सस्ता पेटीकोट खरीदने वाला यहां कोई नहीं, मुझे हाथों में लेकर खुशी का तराना गाए, ऐसा तो कतई नहीं। फिर भी हूं! कैसी हूं?
अजदक में प्रमोद सिंह
कितने अरमान थे कि इस्तांबुल जाऊंगी, वहां से ठुमकती पेरिस पहुंचकर गलीमार्द की कुरसी पर पसरकर संस्कृति-नागर को सन्न कर दूंगी, फिर वहां से भागकर लंदन को बांहों में ऐसे भर लूंगी कि न्यूयॉर्क के सारे बुद्धि-रसिक-वणिक जलकर खाक होते, ढाक के पात होते रहेंगे! सब धरा रह गया। मैं इसी धरा पर धरी रह गई। ऐसा क्योंकर हो गया? मैं थक गई हूं। पक गई हूं। ताज्जुब होता है कि इतनी तकलीफों के बावजूद कैसे अभी तक छपी हुई हूं, पन्नों पर छितराए अक्षरों में बची हुई हूं, जबकि मेरे लिए सस्ती मारकिन की कुरती व एक सस्ता पेटीकोट खरीदने वाला यहां कोई नहीं, मुझे हाथों में लेकर खुशी का तराना गाए, ऐसा तो कतई नहीं। फिर भी हूं! कैसी हूं?
अजदक में प्रमोद सिंह
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