nadiyon ka pani pardusit hone se sagar kaise pardusit ho jata hai
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पुरातन काल की अधिकांश सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारों पर हुआ जो इस बात को इंगित करता है कि जल, जीवन की सभी जरूरतों को पूरा करने के लिये आवश्यक ही नहीं, वरन महत्त्वपूर्ण संसाधन रहा है। विगत दशकों में तीव्र नगरीकरण एवं आबादी में निरंतर हो रही बढ़ोत्तरी, पेयजल आपूर्ति की मांग तथा सिंचाई जल मांग में वृद्धि के साथ ही औद्योगिक गतिविधियों के विस्तार इत्यादि ने जल-संसाधनों पर काफी दबाव बढ़ा दिया है। एक ओर जल की बढ़ती मांग की आपूर्ति हेतु सतही एवं भूमिगत जल के अनियंत्रित दोहन से भूजल स्तर में गिरावट होती जा रही है तो दूसरी ओर प्रदूषकों की बढ़ती मात्रा से जल की गुणवत्ता एवं उपयोगिता में कमी आती जा रही है। अनियमित वर्षा, सूखा एवं बाढ़ जैसी आपदाओं ने भूमिगत जल पुनर्भरण को काफी प्रभावित किया है। आज विकास की अंधी दौड़ में औद्योगिक गतिविधियों के विस्तार एवं तीव्र नगरीकरण ने देश की 14 प्रमुख नदियों विशेषतः गंगा, यमुना, गोदावरी, कावेरी, नर्मदा एवं कृष्णा को प्रदूषित कर बर्बाद कर दिया है।
स्वच्छ जल की गुणवत्ता
जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पृथ्वी पर विद्यमान संसाधनों में जल सबसे महत्त्वपूर्ण है। जल का सबसे शुद्धतम रूप प्राकृतिक जल है, हालाँकि यह पूर्णतः शुद्ध रूप में नहीं पाया जाता। कुछ अशुद्धियाँ जल में प्राकृतिक रूप से पायी जाती हैं। वर्षाजल प्रारंभ में तो बिल्कुल शुद्ध रहता है लेकिन भूमि के प्रवाह के साथ ही इसमें जैव एवं अजैव खनिज द्रव्य घुलमिल जाते हैं। इस प्रकार प्राकृतिक जल में उपस्थित खनिज एवं अन्य पोषक तत्व, मानव सहित समस्त जीवधारियों के लिये स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक ही नहीं वरन काफी महत्त्वपूर्ण भी हैं। गुणवत्ता की दृष्टि से पेयजल में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए।
(अ) भौतिक गुणवत्ता : जल पूर्णतया रंगहीन, स्वादयुक्त एवं शीतल होना चाहिए।
(ब) रासायनिक गुणवत्ता : घुलनशील ऑक्सीजनयुक्त, पीएच उदासीन तथा खनिजों की मात्रा स्वीकृत सीमा में हो।
(स) जैविक गुणवत्ता : जल जनित रोगकारक अशुद्धियों से पूर्णतया मुक्त होना चाहिए।
जल की उपलब्धता एवं मांग
संपूर्ण जल का 97.25 प्रतिशत हिस्सा महासागरों में विद्यमान है जो खारा होने के कारण पीने योग्य नहीं है। पेयजल 2.75 प्रतिशत सतही एवं भूमिगत जल के रूप में पाया जाता है। मीठा होने के कारण यही जल पीने तथा अन्य कार्यों के लिये उपयुक्त होता है। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी पर कुल 8.4 घन किलोमीटर स्वच्छ जल विशेषतः हिमपेटियों एवं हिमनदों, नदियों, झीलों, झरनों, तालाबों, जलाशयों में सतही तथा धरातल के भूगर्त में भूमिगत जल के रूप में पाया जाता है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2025 तक देश की जनसंख्या 13 अरब हो जाएगी और पानी की वार्षिक खपत 1093 अरब घनमीटर, उस समय 50 प्रतिशत और अधिक पानी की आवश्यकता होगी। जल की अनुमानित वार्षिक मांग, वर्तमान 605 अरब घनमीटर से बढ़कर वर्ष 2050 में 1447 अरब घनमीटर तक जा सकती है।
संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रिपोर्ट के अनुसार जल की उपलब्धता की दृष्टिकोण से भारत आज 180 देशों की सूची में 133वें स्थान पर है। वहीं जल गुणवत्ता के दृष्टिकोण से 122 देशों की सूची में 120वें स्थान पर है। स्वतंत्रता प्राप्ति के दौरान, भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5.177 घनमीटर तथा वर्ष 2001 में 1820 घनमीटर थी। नवीनतम आकलनों के अनुसार यह उपलब्धता वर्ष 2050 तक घटकर प्रतिव्यक्ति 1140 घनमीटर रह जाएगी।
जल प्रदूषण
आमतौर पर जल प्रदूषण का मतलब है एक या एक से अधिक पदार्थ अथवा रसायन का जल निकायों में इस हद तक बढ़ जाना जिससे कि मानव सहित समस्त प्राणी जगत को विभिन्न प्रकार की समस्याएँ पैदा होने लगें। इस प्रकार संदूषित जल के उपयोग द्वारा हानिकारक प्रभाव का पड़ना ही जल प्रदूषण है।
जल प्रदूषकों का उनके गुणधर्म के आधार पर वर्गीकरण:
जल में व्यापक रूप में पाए जाने वाले कार्बनिक एवं अकार्बनिक रसायनों, रोगजनकों, भौतिक अशुद्धियों और तापमान वृद्धि जैसे संवेदी कारकों को जल प्रदूषकों में शामिल किया जाता है। जल प्रदूषकों को उनके गुणधर्म एवं मापदंडों के आधार पर निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
भौतिक प्रदूषक
भौतिक प्रदूषकों में उन पदार्थों एवं अवयवों को सम्मिलित किया जाता है जो जल के रंग, गंध, स्वाद, प्रकाश भेद्यता, संवाहक, कुल ठोस पदार्थ तथा उसके सामान्य तापक्रम इत्यादि को प्रभावित करते हैं। इनमें मुख्यतः जलमल, गाद सिल्ट के सस्पंदित ठोस एवं तरल अथवा अन्य घुले कणों के अलावा कुछ विशेष दशाओं में तापशक्ति बिजली-गृहों एवं औद्योगिक इकाइयों से निकले गर्म जल इत्यादि हैं। इनके अलावा कागज, प्लास्टिक मलबे और कंटेनर इत्यादि को भी शामिल कर सकते हैं। भौतिक अशुद्धियाँ जल के मलिनीकरण द्वारा धुंधलापन पैदा कर जलीय पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
रासायनिक प्रदूषक
रासायनिक प्रदूषकों में मुख्यतः कार्बनिक एवं अकार्बनिक रसायन, भारी धातुएँ तथा रेडियोधर्मी पदार्थों को सम्मिलित किया जाता है। ये प्रदूषक जल की अम्लीयता, क्षारीयता एवं उसकी कठोरता, रेडियोधर्मिता, विलयित ऑक्सीजन की उपलब्धता तथा रासायनिक ऑक्सीजन मांग इत्यादि को प्रभावित करते हैं। सतही जल में पाए जाने वाले प्रदूषकों में डिटर्जेंट, घरेलू कीटाणुशोधन में प्रयुक्त रसायन, वाहित वसा एवं तेल, खाद्य प्रसंस्करण अपशिष्ट, कीट एवं रोगनाशी रसायनों के अवशेष, पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन, वाष्पशील रासायनिक यौगिक, औद्योगिक सॉल्वैंट्स तथा कॉस्मेटिक उत्पाद इत्यादि प्रमुख कार्बनिक प्रदूषक हैं। परमाणु संयंत्रों से निकले रेडियोधर्मी पदार्थों के अलावा अकार्बनिक रसायनों में विशेषतः औद्योगिक इकाइयों से निकले अम्ल एवं क्षार युक्त जल, कृषि में प्रयुक्त उर्वरकों से निक्षालित पोषक तत्व, विशेषतः नाइट्रेट, फॉस्फेट तथा मोटर वाहनों एवं औद्योगिक अपशिष्ट के उत्पादों के माध्यम से फ्लोराइड, आर्सेनिक एवं अन्य भारी धातुएँ इत्यादि प्रमुख हैं।