Nagarjun ki kavyagat visheshta ka varnan kijiye
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नागार्जुन पर यह आरोप अक्सर लगाया जाता रहा है की अपनी कविताओं में वे छंद और शिल्प के प्रति उदासीन हैं।सबसे पहले हमें यह देखना चाहिए की यह उदासीनता भाषा और शिल्प की अज्ञानता के कारण है या जानबूझकर अपनाई गयी है। नागार्जुन हिन्दी के अलावा संस्कृत, पाली, प्राकृत, बँगला,मैथिली आदि भाषाओं के भी जानकार थे। उन्होंने संस्कृत में काव्यरचना भी की है और हिन्दी में छंदबद्ध कविताएँ भी लिखी हैं।इसलिए यह कहना ग़लत होगा कि उन्हें भाषा-शिल्प का ज्ञान नहींथा। बल्कि उन्होंने कभी अपने कों छंद और शिल्प में बंधने नहींदिया। वह कविता बतकही की भाषा अपनाते हैं। यह भाषा जहाँस्थानीय शब्दों से अपने कों रंगती है वहीं अन्य भाषाओं के शब्दों कोंसमाहित कर काव्य कों एक विविधता प्रदान करती है। नागार्जुनकी कविताओं में शिल्प बनावटी या गढा हुआ नहीं है बल्कि सहजऔर उदार है। उनके काव्य में कबीर के भाषाई अक्खडपन औरनिराला के व्यंग्य-वैविध्य का अनूठा संगम है।
भाषा के स्तर पर यह नागार्जुन की विशेषता है कि उनकी कवितासीधे जन से जाकर जुड़ती है। नागार्जुन कविता लिखते समय श्रोताके रूप में अपने सामने किसी कला-पारखी अथवा विद्वान कों नहींरखते बल्कि आम ‘जन’ कों रखते हैं। शायद यही कारण है कि जहाँउनकी कविता एक ओर एक अल्पशिक्षित किसान की समझ मेंआ जाते है है वहीँ बड़े साहित्यिक विद्वान उसे समझने में कठिनाईका अनुभव करते हैं। क्योंकि उनकी कविता कों समझने के लिएपहले साहित्यिक और कलागत पूर्वाग्रहों के चश्मे कों उतारना पड़ताहै।