नमक का दारोगा
जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वर-प्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध
हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यवहार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों
का सूत्रपात हुआ : कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों
के पौ-बारह थे। पटवारीगीरी का सर्वसम्मानित पद छोड़-छोड़कर लोग इस विभाग
की वरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता
था। यह वह समय था जब अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु
समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और शृंगार रस के काव्य पढ़कर
फारसीदाँ लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे। मुंशी वंशीधर भी जुलेखा
की विरह-कथा समाप्त करके मजनू और फरहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील
की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्त्व की बातें समझते हुए
रोजगार की खोज में निकले। उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे,
'बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। लड़कियाँ हैं, वे घास-
फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब
गिर पडूं! अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख्तार हो। नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान
मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा
काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो
एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ
स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं
होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं
विद्वान् हो, तुम्हें क्या समझाऊँ! इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है।
मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर देखो, उसके उपरांत जो
उचित समझो, करो। गरज वाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है।
लेकिन बेगरज को दाँव पर पाना जरा कठिन है। इन बातों को निगाह में बाँध लो।
यह मेरी जन्म भर की कमाई है।'
इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया। वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे। ये
बातें ध्यान से सुनी और तब घर से चल खड़े हुए। इस विस्तृत संसार में उनके लिए
अभिनव कथा भारती | 33
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