Hindi, asked by zeusbeast015, 1 day ago

नन्हा-सा-वीर कहानी Explanation
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Answered by vaibhav13550
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नन्हा-सा-वीर कहानी

Explanation:

रात के ठीक तीन बजे थे, जब गाड़ी रतनगढ़ स्टेशन पहुंची। वहाँ से हमे स्थानीय बस अड्डा जाना था। वह ज्यादा दूर नहीं था। हम पैदल ही चल पड़े। मेरे साथ माँ छोटी बहन और छोटा भाई भी था। यद्यपि, रात के तीन बजे थे, तथापि स्टेशन से बाहर निकलने पर कुछ चहल-पहल थी। यह चहल-पहल रिक्शा तांगवालों की थी। थोड़ी दूरी पर कुछ चायवाले खोखा लगाकर बैठे थे। माँ के कहने पर हमने सबसे पहले चाय पीने का निश्चय किया।

अरे! में यह बताना तो भूल गया कि हम रतनगढ़ आए किसलिए थे। वास्तव में हमें रतनगढ़ से कुछ किलोमीटर दूर सालासर जाना था। वहाँ के हनुमान जी के मंदिर की बड़ी भारी मान्यता है। चूंकि सालासर के लिए दिल्ली से हमें सीधी रेल न मिल पायी थी अतः हमें रतनगढ़ होते हुए हो जाना पड़ा।

सालासर जाकर हमने बालाजी के दर्शन किए और पुनः रतनगढ़ लौट आए। वहाँ से हमें बीकानेर जाना था। वहाँ मेरी मौसी रहती है। जब हम रतनगढ़ सौदे तब बारह बज गए थे। मैंने स्टेशन जाकर पता किया तो पता चला कि बीकानेर जाने वाली गाड़ी चार बजे जाएगी। हमने सारा समय स्टेशन पर ही बिताने का निश्चय किया। पहले हमने खाना खाया, फिर कुछ इधर-उधर की बातें करने लगे।

तभी वहाँ एक छोटा-सा लड़का आया। उसकी अवस्था

पांच या छह वर्ष से अधिक नहीं रही होगी। आते

हो बोला- "बाबूजी! जूते पॉलिश

करवाओगे?" मैंने कहा- "नहीं।"

"करवा लो बाबूज, केवल दो रुपये में।" "नहीं-नहीं, मेरे जूते बहुत चमक रहे हैं।"

"बाबू जी, पॉलिश करवा लोगे तो जो पैसे

मिलेगे, उनसे मैं अपनी माँ को कुछ खिला दूंगा।"

यह सुनकर मेरा जी पसीज गया। मैंने उसे बीस

रुपये का नोट देते हुए कहा-"लो, अपनी माँ

को अच्छा खाना खिला दो।" वह कुछ क्रोधित-सा होता हुआ बोला- "बाबू जी, मुझे भीख नहीं चाहिए। मै अपने परिवार का पेट मेहनत करके पालना चाहता हूँ। आप पॉलिश करवा लें, बदले में मुझे केवल दो रुपये चाहिए, बीस नहीं।" इतने छोटे-से बालक में इतना स्वाभिमान! मुझे बड़ी हैरानी हुई। उसका उत्तर सुनकर मुझसे अब कुछ कहते न बना। मैंने अपने और भाई के जूते पॉलिश करने के लिए उसे दे दिए। वह पॉलिश करने बैठा, तो मैंने उससे पूछा-"तुम्हारा नाम

क्या है?" "दीनानाथ।"वह पॉलिश की डिब्बी खोलता हुआ

बोला। "दोनों का नाथ, इस दशा में।" मैने प्रारब्ध को मन में कोसते हुए सोचा। 'भाग्य भी हमारे साथ कैसा कैसा व्यंग्य करता है। दोनों का नाथ अनाथ घूमता है और गरीबदास महलों में ऐश करता है।"

मैने फिर पूछा-"कहाँ रहते हो?"

"यहीं स्टेशन से थोड़ी दूर मेरी झोपड़ी है। वहीं रहता हूँ।" वह जूते पर पॉलिश रगड़ता हुआ बोला। "तुम पढ़ने भी जाते हो या केवल पॉलिश ही करते हो।" मैने बैच पर बैठते हुए पूछा

"नहीं।" उसने लापरवाही से जवाब दिया। “कैसे पिता है तुम्हारे, वे तुम्हे पढ़ाने के बजाए तुमसे जूते पॉलिश करवाते हैं।" मैने भी क्रोधित-सा होते हुए पूछा।

"मेरे पिता नहीं, बस माँ है।"

"ओह! क्या हुआ था उन्हे?”

"वो सामने पटरी देख रहे हो, उसी पर वे एक इंजन के नीचे आ गए थे।"

"माँ कहती है, तब में बहुत छोटा था।" "और तुम्हारी माँ?"

"वह किसी के घर में बर्तन मांजती है, पर आजकल बीमार है।"

उसकी यह बात सुनकर मुझे प्रसाद जी (जयशंकर प्रसाद) के 'छोटे जादूगर' का स्मरण हो आया। उसमें और इसमे कितनी समानताएँ है। वही स्वाभिमान, वही प्रतिकूल परिस्थितियाँ, वही पिता के स्नेह और छाया से वंचित बालकः प्रसाद जी ने छोटे जादूगर के विषय में कहा था- 'बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया, यही तो संसार है।"

उस समय में इन वाक्यों में निहित भावों को शायद समझ न पाया था, किंतु अब तो बात कितनी यथार्थ प्रतीत हो रहो मुझे।

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