Hindi, asked by neha30121998, 10 months ago

natak ke udbhav aur Vikas par Prakash daliye​

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Answered by khushi147552
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ha kyu nhi off course. hope it will help you...

Answered by RDEEP90
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परन्तु फिर भी उससे पूरी लोक-परम्परा का ज्ञान नहीं होता, केवल इस प्रकार की विशाल परम्परा का आभास मात्र मिल जाता है। ओझाजी ने परिश्रम के साथ उन संकेतों को ढूँढ़ा है और प्राकृत, अपभ्रंश आदि पूर्ववर्ती और बंगला, गुजराती आदि पार्श्ववर्ती साहित्यकारों में पाए जानेवाले संकेतों के आधार पर नाटकीय परम्परा के छिन्न सूत्रों को खोज निकालने का प्रयास किया है। रास-लीला के उद्भव और विकास का उन्होंने नवीन रूप में अध्ययन किया और महत्वपूर्ण निष्कर्षों पर पहुँचे हैं। हिन्दी नाटकों के अध्ययन के लिए जिस प्रकार पुराने साहित्य के इंगित सहायक हैं, उसी प्रकार लोक-परम्परा के अनेक मनोरंजक नाट्यरूप भी सहायक हैं। ओझाजी ने सावधानी से दोनों परम्पराओं के सम्भावित प्रभावों के

अध्ययन का प्रयास किया है। बिलकुल आरम्भिक हिन्दी नाट्य-परम्परा के संबंध में ओझा जी का कहना है कि :

‘‘तेरहवीं शताब्दी में एक ओर तो कण्हप-काल से चली आने वाली स्वांग की नाट्य-परम्परा थी, जिसके नाटक डोम और डोमनियों द्वारा अभिनीत होते थे, दूसरी परम्परा रास की थी, जिसका अभिनय बहुरूपिए अथवा जिन-सेवक किया करते थे। पहली परम्परा समाज में उतनी समादृत न थी, जितनी दूसरी। यह दूसरी परम्परा ही मध्यमवर्ग और धार्मिक जनता का मनोरंजन तथा रुचि तथा परिमार्जन कर रही थी। बहु-रूपियों द्वारा नाटकों का अभिनय मन्दिरों के बाहर होता था, किन्तु जैन-मंदिरों में अभिनयकर्ता जैन धर्म के सेवक हुआ करते थे। प्रमाण के लिए ‘जम्बूस्वामी चरित’ का उद्धवरण देखिए—

‘‘चंचरिया बांधि विरहउ सरसु, गाहज्जइ संतिउ तारू जसु,

नच्चिज्जइ जिणाजय सेवकहि, किउ राउस अम्बादेव यहिं।

‘‘इस उद्धवरण से यह ज्ञात होता है कि अम्बा देवी रास का अभिनय जिन-सेवकों के नृत्य द्वारा प्रदर्शित किया जाता था। इस काल के लगभग चार सौ रास ग्रन्थ उपल्बध हो चुके हैं, जिनके परिशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इनका कथानक होता था-

‘‘(1) धार्मिक,

(2) ऐतिहासिक,

(3) पौराणिक,

(4) आध्यात्मिक,

(5) नैतिक,

(6) लौकिक प्रेम-संबंधी।

‘‘उपर्युक्त विभाग कथानक की दृष्टि से किया गया है। वस्तु विभाग की दृष्टि से निम्नलिखित भेद किए जा सकते हैं—

‘‘(1) एकांकी, (2) दो अधिकार के नाटक (3) दो से अधिक खण्डों के नाटक, (4) मुख्यतः पाठ्यरास।

‘‘इन ग्रंथों में जो पद्धति सर्वत्र समान रूप से पायी जाती है, वह है संगीत की। सभी रास विविध छन्दों में राग-रागनियों के निर्देशन के साथ मंगलाचरण और प्रशस्ति-समन्वित हैं। आश्चर्य तो यह है कि यही पद्धति बंगाल में प्रचलित यात्रा-नाटकों में, महाराष्ट्र में अभिनीत दशावतारी नाटकों में तथा गुजरात में प्राप्त भवाई नाटकों में भी विद्यामान थी ! ऐसा प्रतीत होता है कि देश का जनमत उस काल में गद्य की अपेक्षा संगीतमय काव्य के पक्ष में अधिक था। यद्यपि किसी-किसी रास में रंगमंच-निर्देश गद्य में मिलता है, किन्तु ऐसे स्थल नगण्य हैं।’’

हिन्दी-नाट्यकारों में ओझाजी ने विशेष रूप से भारतेन्दु हरिशचन्द्र और प्रसादजी का अध्ययन किया है। सहृदय पाठक देखेंगे कि इस क्षेत्र में ओझाजी की दृष्टि में भी स्वकीयता है और नई सूचानाएँ भी उन्होंने दी हैं। भारतेन्दु हरिशचन्द्र के बारे में अपनी आलोचना का उपसंहार करते हुए वे लिखते हैं:

‘‘भारतेन्दुजी के एक-एक नाटक का हम विस्तृत विवेचन कर आए हैं। उस विवेचन से हम यह निष्कर्ष निकाल सके हैं कि भारतेन्दुजी ने परम्परागत भारतीय नाट्य पद्धति के प्रवाह में यूरोपीय नाट्य-कला की धारा संयुक्त कर दी। परीक्षा के लिए उन्होंने अपने प्रारम्भिक नाटकों में दोनों शैलियों को अलग किया और कथानक के अनुकूल जो पद्धति प्रतीत हुई, उसी को स्वीकार कर लिया। रचना शैली में उन्होंने माध्यम मार्ग पकड़ा-न तो अंग्रेजी नाटकों का अन्धानुकरण किया और न बंगला नाटकों की भारतीय शैली की नितान्त उपेक्षा ही की; साथ-साथ प्राचीन नाट्य-शास्त्र के गहन आवर्त में अपनी-नौका भी न फंसने दी। तात्पर्य यह कि नाटक के गतिरोध करने वालों सभी बन्धनों से उन्होंने अपने को मुक्त रखा। नाटक की सामग्री भी उन्होंने जीवन के विविध क्षेत्रों—श्रृंगार, शौर्य, करुणा आदि से ग्रहण की। इस विषय में उन्होंने अपनी दृष्टि इतनी व्यापाक रखी कि जिससे संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी, सभी प्रकार के नाटक-रस से रस खींचा जा सके।’’

इस प्रकार काफी व्यापक दृष्टि लेकर उन्होंने हिन्दी नाटकों का अध्ययन किया है और बहुत ही महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों पर पहुँचे हैं। ये निष्कर्ष निस्सन्देह विद्वानों के परीक्षण और मनन की उपेक्षा रखते हैं। परन्तु इतना कहने में हमें कोई संकोच नहीं कि प्रथम बार इतनी विशाल पटभूमि पर रखकर हिन्दी के नाटक देखे बांचे गए हैं। मेरा विश्वास है कि इस पुस्तक से हिन्दी-नाटकों के अध्ययन को बहुत बल मिलेगा और यह हिन्दी-संसार के विद्यार्थियों द्वारा-मान प्राप्त करेगी।

हजारी प्रसाद द्विवेदी


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