Hindi, asked by nathasargar930, 15 days ago

नदी की आत्मकथा
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Answered by mdomairkhan23
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मैं पहाड़ों में पैदा हुए नीर का एक स्रोत हूं। मेरी उत्पत्ति पहाड़ों में बर्फ पिघलने से हुई है। प्रकृति ने मुझे प्राणियों के उद्धार के लिए बनाया है। मेरा मुख्य कार्य जीवों को नीर की आपूर्ति करना है। मैं जहां भी बंजर भूमि से होकर बहती हूं, वहां मुझमें हरा-भरा बनाने की क्षमता है।पहाड़ों से बाहर निकलते समय, मेरा रूप बहुत छोटा होता है, लेकिन जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ती हूं, मैं बड़ी होती जाती हूं और आखिरकार समुद्र में चली जाती हूं। लेकिन समुद्र में शामिल होने से पहले, मैं अपनी आसपास की जमीन को हरा-भरा कर देती हूं। इतना ही नहीं, इसके अलावा भी कई जीव मुझमें पनपते हैं और मुझमें रहते हैं और अपने जीवन का संचालन करते हैं। समुद्र में मिलने से पहले और पहाड़ों से निकलने के बाद मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ती है। मेरे सामने कई बाधाएँ आती हैं, लेकिन मैं उन बाधाओं का साहसपूर्वक सामना करके अपना काम पूरा करती हूँ। मेरे अवरोधक पदार्थ छोटे और बड़े कंकड़, पत्थर और चट्टान हैं, लेकिन मैं आसानी से उन्हें पार कर लेती हूं और अपना रास्ता खोज लेती हूं।यदि मेरे उपयोग की गणना की जाती है, तो वह बहुत अधिक है। मेरे नीर का उपयोग बिजली पैदा करने और खेतों की सिंचाई जैसे कृषि कार्य करने के लिए किया जाता है। बिजली इंसानों के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण चीज है, जिसकी वजह से इंसान इतनी तरक्की कर पाया है। बिजली के कारण आधे से अधिक मानव के कार्य चल रहे हैं। अगर बिजली नहीं होगी तो मानव बहुत ज्यादा पिछड़ जाएगा। मेरे नीर का उपयोग खेतों की सिंचाई के लिए भी किया जाता है जिसके कारण फसलें उगती हैं और चारों तरफ हरियाली होती है। ये फसलें बाद में अनाज देती हैं, जिससे इस सृष्टि के लिए भोजन की व्यवस्था होती हैं। मेरे इतने उपयोगी होने के बावजूद, मानव अभी भी मुझे दूषित करने की कोशिश कर रहा है। कारखानों का दूषित पानी, कचरा और प्लास्टिक मुझमें मनुष्यों द्वारा फेंका जाता है, जो मेरे पानी को दूषित कर रहा है। इसलिए, मैं इंसानों से अनुरोध करना चाहती हूं कि वे मेरे साफ पानी को दूषित न करें और मुझे साफ रखने में अपनी भूमिका निभाएं।मुझे कई अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है, जैसे : नहर, सरिता, प्रवाहिनी, तटिनी, आदि। मैं मुख्यतः स्वभाव से चंचल हूं, पर कभी-कभी मद्धम भी हो जाती हूं। कल-कल करके बहती ही रहती हूं, निरंतर – बिना रुके, बिना अटके, बस चलती ही रहती हूं।

मनुष्य मुझे मुख्यतः प्रलोभी जान पड़ता है, बस अपना स्वार्थ पूरा करने हेतु किसी भी हद तक जा सकता है। मेरे इस मत का क्या कारण है, मैं आपको एक उदाहरण देकर बताती हूँ। मनुष्य द्वारा मुझे देवी के रूप में पूजा जाता है, मेरी पूजा अर्चना की जाती है, लोग मन्नत मांगते हैं, इच्छा पूरी करने के लिए व्रत रखते हैं, फूल चढ़ाते हैं; फिर वहीं दूसरी ओर मुझ में गंदगी डालते हैं, मुझे प्रदूषित करते हैं। अब बताइए भला देवी को कोई मैला करता है क्या ! बस यहीं पर मनुष्य के दोहरे मानक सामने आ जाते हैं, अगर मुझे सच्चे मन से देवी मानते, तो मुझ में कभी भी कूड़ा ना डालते। आज परिस्थितियां यह है कि नदियों का पानी अत्यंत दूषित हो चुका है। फैक्टरियों से निकला हुआ जहरीला पदार्थ, कचरा, मलबा, घरों के कूड़े से निकला हुआ प्लास्टिक, गंदगी, त्योहारों का जमा हुआ कचरा और ना जाने कितनी ही चीजें नदियों के पानी में मिलकर प्रदूषण फैला रही है। इन सब बिंदुओं के विपरीत कुछ अच्छे पल, कुछ अच्छे लम्हे भी हैं मेरी झोली में। एक सुनसान खूबसूरत जंगल में बहते हुए, जब मैंने एक थके हुए राहगीर की प्यास बुझाई थी, तब बहुत अच्छा महसूस हुआ था। बाग में खेलते हुए छोटे बच्चे ने जब मिट्टी में सने अपने छोटे-छोटे हाथ मुझमे धोए थे, छप-छप करके मेरे पानी के साथ खेल किया था, तब अत्यंत आनंद आया था। त्योहारों के वक्त में, जब मेरे आसपास भीड़ उमड़ती है, मेले लगते हैं, खूब रौनक होती है, सभी चेहरों पर मुस्कान होती है, तब बहुत अच्छा लगता है। त्योहारों में अलग ही खुशी होती है, सभी लोग: बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएं, छोटी बच्चियां, लड़के – एक ही जगह एकत्रित होते हैं, भिन्न भिन्न प्रकार के व्यंजन बनते हैं, हर्ष उल्लास का पर्व सा होता है, यह सभी बहुत खुशनुमा लगता है। परन्तु बहुत से पल ऐसे भी होते है, जब मन भाव विभोर हो जाता है। जीवन काल पूरा होने पर, जब मनुष्य मृत्यु की गोद में समा जाता है और मिट्टी का शरीर चिता पर जलने के बाद राख में बदल जाता है, बस राख रह जाती है। जीवंत होने पर जो व्यक्ति प्यारा होता है, मृत्यु के बाद उसी को चिता की आग दिखाते हैं और अस्थियां नदी में बहते हैं : यही कटु सत्य है। ऐसा लगता है मानो उस राख में मनुष्य का सारा जीवन है और मैं यह सब महसूस कर पाती हूँ। मनुष्य के सपने, उम्मीदें, इच्छाएं; सब कुछ, जीवन पूरा होने पर, बस बहा चला जाता है। मनुष्य ने सारा जीवन, जिन इच्छाओं के पीछे गँवाया, वही इच्छाएं पानी की धार के साथ बही चली जाती है।

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