India Languages, asked by gherwadadhruv06, 3 months ago

नदी की आत्मकथा in 80-100 words​

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Answered by sheetalverma212001
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भूमिका : नदी प्रकृति के जीवन का एक महत्व पूर्ण अंग है। इसकी गति के आधार पर इसके बहुत नाम जैसे – नहर , सरिता , प्रवाहिनी , तटिनी , क्षिप्रा आदि होते हैं। जब मैं सरक-सरक कर चलती थी तब सब मुझे सरिता कहते थे। जब मैं सतत प्रवाहमयी हो गई तो मुझे प्रवाहिनी कहने लगे।

जब मैं दो तटों के बीच बह रही थी तो तटिनी कहने लगे और जब मैं तेज गति से बहने लगी तो लोग मुझे क्षिप्रा कहने लगे। साधारण रूप से तो मैं नदी या नहर ही हूँ। लोग चाहे मुझे किसी भी नाम से बुलाएँ लेकिन मेरा हमेशा एक ही काम होता है दुसरो के काम आना। मैं प्राणियों की प्यास बुझती हूँ और उन्हें जीवन रूपी वरदान देती हूँ।

नदी का जन्म : मैं एक नदी हूँ और मेरा जन्म पर्वतमालाओं की गोद से हुआ है। मैं बचपन से ही बहुत चंचल थी। मैंने केवल आगे बढना सिखा है रुकना नहीं। मैं एक स्थान पर बैठने की तो दूर की बात है मुझे एक पल रुकना भी नहीं आता है। मेरा काम धीरे-धीरे या फिर तेज चलना है लेकिन मै निरंतर चलती ही रहती हूँ।

मैं केवल कर्म में विश्वास रखती हूँ लेकिन फल की इच्छा कभी नहीं करती हूँ। मैं अपने इस जीवन से बहुत खुश हूँ क्योंकि मैं हर एक प्राणी के काम आती हूँ , लोग मेरी पूजा करते हैं , मुझे माँ कहते हैं , मेरा सम्मान करते हैं। मेरे बहुत से नाम एखे गये हैं जैसे :- गंगा , जमुना , सरस्वती , यमुना , ब्रह्मपुत्र , त्रिवेणी। ये सारी नदियाँ हिन्दू धर्म में पूजी जाती हैं।

नदी का घर त्यागना : मेरे लिए पर्वतमालाएं ही मेरा घर थी लेकिन मैं वहाँ पर सदा के लिए नहीं रह सकती हूँ। जिस तरह से एक लडकी हमेशा के लिए अपने माता-पिता के घर पर नहीं रह सकती उसे एक-न-एक दिन माता-पिता का घर छोड़ना पड़ता है उसी तरह से मैं इस सच्चाई को जानती थी और इसी वह से मैंने अपने माँ-बाप का घर छोड़ दिया।

मैंने माता-पिता का घर छोड़ने के बाद आगे बढने का फैसला किया। जब मैंने अपने पिता का घर छोड़ा तो सभी ने मेरा पूरा साथ दिया मैं पत्थरों को तोडती और धकेलती हुई आगे बढती ही चली गई। मुझसे आकर्षित होकर पेड़ पत्ते भी मेरे सौन्दर्य का बखान करते रहते थे और मेरी तरफ आकर्षित होते थे।

जो लोग प्र्वर्तीय देश के होते हैं उनकी सरलता और निश्चलता ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। मैं भी उन्हं की तरह सरल और निश्चल बनी रहना चाहती हूँ। मेरे रास्ते में बड़े-बड़े पत्थरों और चट्टानों ने मुझे रोकने की पूरी कोशिश की लेकिन वो अपने इरादे में सफल नहीं हो पाए।

मुझे रोकना उनके लिए बिलकुल असंभव हो गया और मैं उन्हें चीरती हुई आगे बढती चली गई। जब भी मैं तेजी से आगे बढने की कोशिश करती थी तो मेरे रास्ते में वनस्पति और पेड़-पौधे भी आते थे ताकि वो मुझे रोक सकें लेकिन मैं अपनी पूरी शक्ति को संचारित कर लेती थी जिससे मैं उन्हें पार करके आगे बढ़ सकूं।

नदी का मैदानी भाग में प्रवेश : शुरू में मैं बर्फानी शिलाओं की गोद में बेजान , निर्जीव और चुपचाप पड़ी रहती थी। मुझे मैदानी इलाके तक पहुंचने के लिए पहाड़ और जंगल पर करने पड़े थे। जब मैं पहाड़ों को छोडकर मैदानी भाग में आई तो मुझे अपने बचपन की याद आने लगी।

मैं बचपन में पहाड़ी प्रदेशों में घुटनों के बल सरक-सरक कर आगे बढती थी और अब मैदानी भाग में आकर सरपट से भाग रही हूँ। मैंने बहुत से नगरों को ख़ुशी और हरियाली दी है। जहाँ-जहाँ से होकर मैं गुजरती गई वहाँ पर तट बना दिए गये। तटों के आस-पास जो मैदानी इलाके थे वहाँ पर छोटी-छोटी बस्तियां स्थापित होती चली गयीं।

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Answered by sakshi65779
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नदी की आत्मकथा । एक नदी की कहानी

मैं नदी हूँ। नाम है यमुना। नागराज हिमालय मेरा पिता हैं। जब जग का ताप उनके बर्फीले हृदय को द्रवित कर देता है तो उनकी कामना से मैं जन्म लेती हूँ। मैं कन्या जो ठहरी इसलिए पिता के घर से निकलना मेरी नियती है। मै पल-पल समुद्र की ओर चलती जाती हूँ। मुझे चलने का बड़ा चाव है। कहीं हरी-हरी घाटियाँ, कहीं बर्फ कि चादर ओढ़े पहाड़ है, कहीं गहरी खाइयाँ हैं, तब भी रूकती नहीं हूँ। जन्म से लेकर समुद्र में मिलने तक मैं ठहरती नहीं हूँ।

मेरा जन्म पिता की करुणा से हुआ है। अतः मैं भूखे-प्यासे जनों को अन्न-जल का दान करने के लिए दौड़ती फिरती हूँ। मैं किसानों द्वारा रोपे गए बीजों को विकसित करती हूँ, उन्हें फल-सब्ज़ी बनाकर लोगों का पेट भरती हूँ। कपास पैदा करके तन को वस्त्र ओढ़ाती हूँ। वृक्षों की लकड़ियाँ प्रदान कर भवनों का निर्माण तो करती ही हूँ, सर्वत्र हरियाली उगाकर पर्यावरण को स्वच्छ मैं ही बनाती हूँ। मेरे जल के बिना विज्ञान चाहे कितने हाथ-पाँव मार ले वह भी अपना कोई भी यंत्र नहीं चला सकता। मेरे जल के बिना न बड़े-बड़े बाँध बन सकते हैं, न बिजली पैदा हो सकती है, न कल-कारखाने चल सकते हैं, न यह आधुनिक चकचौंद में सभ्यता खड़ी हो सकती है।

मैं समतल धरती पर उतरने से पहले स्वच्छ और सुंदर रहती हूँ किंतु इस धरती के लोग बड़े अकृतज्ञ हैं। वे मुझे धन्यवाद देने की वजाए कूड़ा-कड़कट, अपना मल और गंदगी मुझ में डाल देते हैं। जिसके चलते दिन-प्रतिदिन मेरा जल प्रदूषित होता जा रहा है। वे यह नहीं समझते हैं कि मेरे हानि पहुँचने से उनका भी नुकसान हो रहा है।

ओह! मैं भी क्या अपनी व्यथा-कथा ले बैठी। मैं तो नारी हूँ, इस जगत को देना ही मेरा धर्म है। यह लोग जो मेरे पुत्र के समान हैं, मुझे लुटे या मेरी गोदी में खेले यह तो इनकी इच्छा।

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