Hindi, asked by vithobadhikale860034, 6 months ago

नदी कि प्राकृतिक संपदा​

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Answered by mastermaths55
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Explanation:

गांधी का यह कथन कि यह धरती सबकी जरूरत पूरी कर सकती है, पर किसी एक का भी लालच पूरा नहीं कर सकती' न केवल तर्क के आधार पर, अपितु हालात को ध्यान में रख कर सोचें तो भी सर्वथा सही प्रतीत होता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी आज विकास के प्रखर सेतु मान लिए गए हैं, पर उनकी अधोगति से अब दुनिया परिचित होने लगी है। बहुत से कारणों में से इसका एक मुख्य कारण प्रौद्योगिकी की वह जटिलता भी रही है जो आम और निर्धन व्यक्ति की पहुंच से बाहर की चीज है। आम आदमी के लिए रोजमर्रा की आवश्यकताओं की पूर्ति बुनियादी बात है। ये आवश्यकताएं सरलता से कैसे पूरी हो सकती हैं यही देखना व्यवस्था का प्राथमिक दायित्व बनता है। आम आदमी के लिए भोजन, वस्त्र, आवास और जिन परिस्थितियों में वह जीता है उसमें निर्मित उसकी संस्कृति यदि बखूबी उपलब्ध रहे तो एक संतुलित और समतापरक समाज की परिकल्पना साकार हो सकती है।

इसके लिए कोई भी बाहरी 'मॉडल' उपयुक्त नहीं हो सकता क्योंकि वैसा 'मॉडल' निर्धन और आम आदमी की क्षमता से बाहर का होगा। वैसा 'मॉडल' बना देने में जो पूंजी और बाहरी संसाधन की जरूरत पड़ेगी वे सहज रूप से बिना किसी प्रकार के विनाश के प्राप्त नहीं किए जा सकते। ठीक इसके विपरीत स्थानीय सामग्री और स्थानीय उपभोग को आधार मानकर यदि नीतिगत निर्णय ले लिए जाएं और उनके क्रियान्वयन में स्थानीय सहमति को प्रमुखता दी जाए तो एक नए प्रकार के समाज की संरचना की जा सकती है।

ऐसी संरचना में हमारी प्राकृतिक संपदाएं अत्यधिक सहायक हो सकती हैं। प्रकृति में जो कुछ विद्यमान है उसका मूल्य अपरिमित है। उसके दोहन, उपभोग और उसकी पुनर्रचना, पुनर्भरण ने नियंत्रण स्थापित करने की सामर्थ्य स्वयं प्रकृति के ही पास है। मनुष्य अपने विवेक से प्रकृति की इस अनूठी सामर्थ्य के साथ सुसंगति कायम करने के लिए यदि संकल्पित हो जाए तो शुरू में उल्लिखित गांधी के कथन का गूढ़ार्थ हर व्यक्ति समझ सकता है।

मनुष्य प्रकृति का ही एक अंग है। उसे प्रकृति ने दो हाथ देकर उपभोग की सीमा निर्धारित कर दी है। मनुष्य की संपूर्ण चर्या—आहार, शौच, निंद्रा, सबमें एक सीमा है और सबकी एक लय है। यह सीमा और लय विकृति की ओर उन्मुख न हो, यह मनुष्य के विवेक पर निर्भर है।

संपूर्ण मनुष्य समाज में विवेक के जागृत हो जाने से ही प्रकृति हमारी हर जरूरत को सहजता से पूरा कर पाएगी। यदि ऐसा नहीं होगा तो यही प्रकृति अपने दुष्चक्र से हमें अपने किए का मजा भी चखा देगी।

यदि हम स्वीकार कर लें कि हम सब संपूर्ण प्राणी जगत प्रकृति की संतान ही हैं तो यह मान लेने में हमें किंचित् भी झिझक नहीं होनी चाहिए कि हम बेसहारा नहीं हैं। प्रकृति की एक अनुपम निधि है वृक्ष। इस धरती पर और भारत भूमि पर इतनी विविध वृक्षावलियां हैं कि वे मनुष्य जाति से लेकर संपूर्ण प्राणी जगत की हर जरूरत पूरा कर सकती हैं। इसीलिए भारत के महान ऋषियों, महर्षियों ने पेड़ लगाने और उनकी परवरिश करने पर अपने उपदेशों में सर्वाधिक बल दिया।

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