Hindi, asked by sneharajsneharaj101, 5 months ago

नदी के तट पर कौन खरा था?​

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Answered by YASHASVEESHUBH
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जलालपुर में सूखी सई नदीनदी की पहली स्मृतियों में ट्रेन की खिड़की से झाँकता धुँधलका कौंधता हैं। बचपन में पुल से गुजरती ट्रेन की धड़-धड़ सुनते ही हम उचककर खिड़की से झाँकते। लगता था ऊपर से लोहे के भारी-भरकम पिलर्स गिर रहे हैं। उनके गिरने की लयबद्ध आवाज आ रही है। हमारी ट्रेन भी उतनी ही तेजी से भाग रही होती थी।

रफ्तार का असली अहसास पुल से गुजरते वक्त ही होता था। लेकिन जब हमारी निगाह इस सबके पार नदी पर टिकती तो सब कुछ शान्त और ठहरा हुआ दिखता। अक्सर दूर क्षितिज की ओर विलुप्त होती नदी की रेखा और उदास बलुई किनारे। किसी एक किनारे से थोड़ी दूर पर आहिस्ता-आहिस्ता तैरती नाव। लम्बे रेतीले तट पर लोग निर्लिप्त अपना काम करने में जुटे नजर आते। कभी खरबूजे से लदे ऊँट दिखते तो कभी दोपहरी में शरारती बच्चे झमाझम तैरते और डुबकी लगाते आँखों ओझल हो जाते। मगर नदी से हुई इन पहली मुलाकातों में हमारे और नदी के बीच बहुत दूरी थी।

पहली बार नदी से वास्तविक परिचय इलाहाबाद आने पर हुआ। पानी में डूबी घाट की पथरीली सीढ़ियाँ, हिलता हुआ जल और उस पर बहते फूल या कभी-कभार कचरा। इलाहाबाद शहर में नदी अपनी पूरी गरिमा के साथ है। एक अलहदा अस्तित्व लिये हुए। महानगर के पूरे कोलाहल को अपने में समेटती। उसमें गहराई भी है और विस्तार भी।

इलाहाबाद में रिपोर्टिंग के दौरान कई बार झूँसी के पुल पर स्कूटर से भागते हुए यह लोभ होता था कि ठहरकर धूप में नहाई नदी को या क्षितिज की ओर उसकी धुँधली पड़ती रेखाओं को देखूँ। कई बार तो शाम को नदी देखना मन को बेचैन कर देता था। मन स्पंज की तरह संध्या की उस मटियाली उदासी को सोखकर भारी हो जाता था। मगर नदी का एक और रूप देखना अभी बाकी था। यह एक लोकोत्तर रूप था, जो मन से नहीं आत्मा से जुड़ता था। गंगा-यमुना के इस संगम की अलौकिकता का अहसास मुझे तब हुआ जब मैं गोरखपुर से इलाहाबाद की बस से तकलीफदेह यात्रा करता हुआ संगम के करीब पहुँचा।

माघ करीब था। ठंड थी। बस में लोग बहुत कम थे। सारे लोग ठिठुर रहे थे। मैं पीछे की तरफ था। आखिरी सीट पर कोई सनकी व्यक्ति धीमी आवाज में लगातार गीत गाता जा रहा था। वह रहस्यमय सा युवक शायद सारी जिन्दगी मुझे याद रहेगा। जैसे-जैसे इलाहाबाद करीब आ रहा था उसका स्वर ऊँचा होता जा रहा था।

गीत छोड़कर उसने पंत और प्रसाद की कविताएँ ऊंची आवाज में पढ़नी शुरू कर दीं। पुरानी खटारा बस के इंजन की घरघराहट और हिचकोलों के बीच अचानक मेरी निगाह खिड़की से बाहर गई। बाहर फैली अनंत कालिमा के बीच कहीं दूर पीली जगमगाती रोशनी का अम्बार लगा था। क्षितिज में उसका दूर तक विस्तार था। लगा जैसे हजारों रुपहले नहीं बल्कि सुनहले सितारे जमीन पर उतर आये हों। पानी में वे झिलमिल-झिलमिल कर रहे थे।

यह नदी किनारे माघ मेले की झलक थी जो हमें दूर से बस में बैठे दिख रही थी। रात के अन्धेरे में भी नदी का विस्तार साफ पता चल रहा था। मैं पल भर के लिये सम्मोहित सा हो गया। मेरी तकलीफ और थकान दोनों मिट गए थे। उधर बस में बैठे व्यक्ति ने शायद कीट्स और शैली को पढ़ना शुरू कर दिया था। बस के सन्नाटे में एक उसकी ही आवाज गूँज रही थी। मुझे लगा कि मैं कोई स्वप्न देख रहा हूँ।

मेरे भीतर उतरी इस अलौकिकता का बड़ा महत्त्व था। इसका महत्त्व तब और समझ में आया जब मैं लौकिक जीवन में एक नदी की तलाश में निकला।

मेरे लिये यह पत्रकारिता की शुरुआत थी और मैं इलाहाबाद में अपने लिये कुछ उल्लेखनीय असाइनमेंट्स तलाश रहा था। जिनके दम पर मैं खुद को सम्भावनाशील पत्रकारों में शामिल कर सकूँ। पर्यावरण और कृषि पर अपने काम के लिये चर्चित पत्रकार प्रताप सोमवंशी उस वक्त अमर उजाला में रिपोर्टिंग इंचार्ज थे। उन्हें शायद किसी विज्ञप्ति में सई नदी में बढ़ते प्रदूषण पर कुछ जानकारी मिली। उनको सई के बारे में मिली तथ्य चौंकाने वाले लगे। पता लगा कि पानी में गिर रहे फैक्टरी के कचरे से उस नदी के पानी का रंग काला पड़ गया है।

उन्होंने मुझसे इस पर चर्चा की और सई नदी में हो रहे प्रदूषण की खोजबीन करने को कहा। थोड़ी सी पड़ताल में यह भी पता लगा कि उत्तर प्रदेश के कई जिले सई नदी के किनारे बसे हैं। खासतौर पर रायबरेली, प्रतापगढ़ और जौनपुर जैसे बड़े जिले। मेरे लिये प्रतापगढ़ और रायबरेली जाने की तैयारी हो गई। दो दिन का वक्त लेकर मुझे नदी पर रिपोर्ट्स की एक सीरीज तैयार करनी थी। इसकी शुरुआत प्रतापगढ़ से होनी थी।

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