Hindi, asked by yamanelanagritani, 1 year ago

Naubat khane me ibadat summary

Answers

Answered by Chirpy
257

लेखक यतीन्द्र मिश्र जी ने नौबतखाने में इबादत पाठ में बिस्मिल्लाह खां जी के जीवन के बारे में बताया है। खां साहब बिहार में डुमरांव में पैदा हुए। उनका नाम अमरुद्दीन रखा गया। पांच - छह साल की उम्र में वे अपने नाना के पास काशी में रहने के लिए गए। उन्होंने अपने मामा से शहनाई बजाना सीखा। शहनाई बजाना उनके खानदान का पेशा था। वे अपने धर्म में पूरा विश्वास करते थे और उसका पालन करते थे। उसके साथ में वे अन्य धर्मों का भी सम्मान करते थे। वे पांच बार दिन में नमाज़ पढ़ते थे और काशी विश्वनाथ व बालाजी के मंदिर के ओर मुंह करके शहनाई भी बजाते थे। इस पाठ में लेखक ने उनके जीवन की सभी छोटी या बड़ी बातें बताई हैं। उन्होंने उनके अंतर्मन की बातें, रुचियों और संगीत की साधना के बारे में बताया है। खां साहब शहनाई को सिर्फ एक वाद्ययंत्र नहीं बल्कि अपनी साधना का माध्यम मानते थे। अस्सी वर्ष की उम्र तक उन्होंने अपनी इस साधना को जारी रखा। पाठ में खां साहब के चरित्र के उन पक्षों को भी उजागर किया है जिनके बारे में आम लोग नहीं जानते हैं। एक जाने माने कलाकार होने के बावजूद उनमें जरा सा भी अहंकार नहीं था। यह उनका एक विशेष गुण था।      





Answered by Yash8564862253
76

सार

अम्मीरुद्दीन उर्फ़ बिस्मिल्लाह खाँ का जन्म बिहार में डुमराँव के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ। इनके बड़े भाई का नाम शम्सुद्दीन था जो उम्र में उनसे तीन वर्ष बड़े थे। इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँव के निवासी थे। इनके पिता का नाम पैग़म्बरबख़्श खाँ तथा माँ मिट्ठन थीं। पांच-छह वर्ष होने पर वे डुमराँव छोड़कर अपने ननिहाल काशी आ गए। वहां उनके मामा सादिक हुसैन और अलीबक्श तथा नाना रहते थे जो की जाने माने शहनाईवादक थे। वे लोग बाला जी के मंदिर की ड्योढ़ी पर शहनाई बजाकर अपनी दिनचर्या का आरम्भ करते थे। वे विभिन्न रियासतों के दरबार में बजाने का काम करते थे।

ननिहाल में 14 साल की उम्र से ही बिस्मिल्लाह खाँ ने बाला जी के मंदिर में रियाज़ करना शुरू कर दिया। उन्होंने वहां जाने का ऐसा रास्ता चुना जहाँ उन्हें रसूलन और बतूलन बाई की गीत सुनाई देती जिससे उन्हें ख़ुशी मिलती। अपने साक्षात्कारों में भी इन्होनें स्वीकार किया की बचपन में इनलोगों ने इनका संगीत के प्रति प्रेम पैदा करने में भूमिका निभायी। भले ही वैदिक इतिहास में शहनाई का जिक्र ना मिलता हो परन्तु मंगल कार्यों में इसका उपयोग प्रतिष्ठित करता है अर्थात यह मंगल ध्वनि का सम्पूरक है। बिस्मिल्लाह खाँ ने अस्सी वर्ष के हो जाने के वाबजूद हमेशा पाँचो वक्त वाली नमाज में शहनाई के सच्चे सुर को पाने की प्रार्थना में बिताया। मुहर्रम के दसों दिन बिस्मिल्लाह खाँ अपने पूरे खानदान के साथ ना तो शहनाई बजाते थे और ना ही किसी कार्यक्रम में भाग लेते। आठवीं तारीख को वे शहनाई बजाते और दालमंडी से फातमान की आठ किलोमीटर की दुरी तक भींगी आँखों से नोहा बजाकर निकलते हुए सबकी आँखों को भिंगो देते।

Similar questions