History, asked by rohitkumar8472, 7 months ago

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गुप्त युग के दौरान सामाजिक और धार्मिक जीवन का विवरण लिखें।​

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Answered by shishir303
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गुप्तयुग में सामाजिक और धार्मिक जीवन

गुप्तयुग में सामाजिक जीवन...

गुप्त काल में सामाजिक जीवन में वर्ण व्यवस्था का प्रचलन था और समाज को चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में विभाजित किया गया था। ब्राह्मणों को सभी वर्णों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। इन चार वर्णों के अलावा गुप्त काल में जाति व्यवस्था अधिक जटिल नहीं थी। गुप्त काल में ब्राह्मण ना केवल धार्मिक कर्मकांड का कार्य करते बल्कि कुछ ब्राह्मण व्यापार-वाणिज्य का कार्य भी करते थे। हालांकि व्यापार-वाणिज्य का मुख्य कार्य वैश्यों का होता था। गुप्तकाल में ही बाद में छोटी-छोटी पेशेवर अस्तित्व में आने लगी थीं, जैसे कि कृषक, पशुपालक, नाटककार, जुलाहा, माली, तेली, बढ़ई आदि।

शूद्रों को को समाज में निम्न स्थान प्राप्त था और वह शहर के बाहर निवास करते थे, क्योंकि उनका कार्य जानवरों का माँस बेचना या मैला आदि ढोना होता था। शूद्रों को चांडाल भी कहा जाता था। गुप्त काल में दास प्रथा का भी प्रचलन था, लेकिन दास प्रथा बहुत अधिक कठोर नही थी, जैसी कि पश्चिमी देशों में होती थी। दास को अपनी सेवा के कार्यकाल को पूर्ण होने के बाद स्वतंत्रता पाने की छूट थी।

महिलाओं को समाज में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था, लेकिन विधवाओं की स्थिति बहुत अधिक अच्छी नहीं थी और उन्हें कठोर साधना वाला व सादगी वाला जीवन जीना पड़ता था। कन्याओं का विवाह अल्पायु में ही लगभग 12-14 वर्ष की आयु में ही हो जाता था।  गुप्त काल कुलीन वर्ग की महिलाओं में घूंघट प्रथा का प्रचलन था। गुप्त काल में स्त्रियों को संपत्ति में बराबर का अधिकार मिलता था। पुत्र के अभाव में पति की संपत्ति पर पत्नी का अधिकार होता था।

संगीत, नृत्य, नाटक आदि जैसे विधाये व मनोरंजन के साधन गुप्तकाल में प्रचलित थे और समाज के लोग इसमें पूरी भागीदारी करते थे। वेश्या का भी अस्तित्व था और देवदासियां भी होती थीं, जो मंदिर आदि में गायन आदि का कार्य करती थीं।

गुप्तयुग में धार्मिक जीवन...

गुप्त युग को सनातन धर्म अर्थात आज के हिंदू धर्म के पुनरुत्थान का काल माना जाता है। गुप्त वंश के लोगों का मुख्य धर्म यानी सनातन धर्म की वैष्णव संप्रदाय शाखा थी, लेकिन  उनके काल में शैव संप्रदाय का भी विकास हुआ। गुप्तयुग के राजाओं में धार्मिक सहिष्णुता की भावना पूरी थी और लगभग हर धर्म का विकास हुआ।

गुप्त वंश के लोग वैष्णव धर्म का पालन करते थे अर्थात विष्णु भगवान के उपासक थे, लेकिन उनके काल में शैव सम्प्रदाय का भी विकास हुआ। गुप्तकाल के लोगों में बौद्ध धर्म को बहुत अधिक संरक्षण तो नहीं मिला, लेकिन यह धर्म फिर भी विकसित हुआ। बौद्ध धर्म के मुख्य केंद्र गया, मथुरा, कौशांबी, सारनाथ थे। गुप्त काल में ही जैन धर्म का भी उल्लेखनीय विकास हुआ था।

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Answered by Anonymous
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Answer:

गुप्त युग के दौरान सामाजिक और धार्मिक जीवन का विवरण इस प्रकार है

Explanation:

गुप्तयुगीन सामाजिक जीवन : गुप्तयुगीन समाज में वर्ण-व्यवस्था पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित थी । भारतीय समाज के परम्परागत चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के अतिरिक्त कुछ अन्य जातियाँ भी अस्तित्व में आ चुकी थीं । चारों वर्णों की सामाजिक स्थिति में विभेद किया जाता था ।

वाराहमिहिर के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के घर क्रमशः पाँच, चार, तीन तथा दो कमरों वाले होने चाहिए । न्याय-व्यवस्था में भी विभिन्न वर्णों की स्थिति के अनुसार भेद-भाव बरते जाने का विधान मिलता है ।परन्तु इस समय जाति-व्यवस्था उतनी अधिक जटिल नहीं हो पाई थी जितनी कि परवर्ती कालों में देखने को मिलती है । समाज के सभी वर्णों एवं जातियों में ब्राह्मणों का प्रतिष्ठित स्थान था । यद्यपि उनका मुख्य कर्म धार्मिक एवं साहित्यिक था तथापि कुछ ब्राह्मणों ने अपने जातिगत पेशों को छोड़कर अन्य जातियों की वृत्ति अपना लिया था ।

मृच्छकटिक, जो गुप्तकालीन रचना है, में चारुदत्त नामक ब्राह्मण को ‘सार्थवाह’ (व्यापारी) कहा गया है । इस ग्रन्थ से पता चलता है कि उसका परिवार पिछली तीन पीढ़ियों से व्यापार तथा वाणिज्य की वृत्ति अपनाये हुए था । बौद्ध साहित्य से भी पता चलता है कि बहुसंख्यक ब्राह्मण व्यापार-वाणिज्य का कार्य करते थे ।

स्मृति ग्रन्थों में भी इस वृत्ति को ब्राह्मण वर्ण का ‘आपद्धर्म’ कहा गया है । यह इस काल में व्यापार-वाणिज्य के बढ़ते हुए प्रभाव का सूचक है । कुछ ब्राह्मण शिल्पकार का काम करते थे जबकि कुछ युद्ध एवं सैनिक कार्यों में भी निपुण थे । इसी प्रकार क्षत्रिय जाति के लोगों ने भी व्यापार एवं औद्योगिक वृत्ति अपना ली थी  

इस प्रकार सभी वर्गों की वृत्तियों में शिथिलता आती जा रही थी । कृषक, पशुपालक, धातुकार, तैलकार, जुलाहे, माली आदि की समाज में विशिष्ट जातियाँ गठित हो चुकी थीं । अनेक मिश्रित (संकर) जातियाँ भी अस्तित्व में आ चुकी थीं । स्मृतियों में मूर्धावसिक्त, अम्बष्ट, पारशव, उग्रकरण आदि मिश्रित जातियों का उल्लेख हुआ है । समकालीन अभिलेखों में ‘कायस्थ’ नामक पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है जो पेशेवर लेखक थे तथा उनकी कोई विशिष्ट जाति नहीं बन पाई थी ।

गुप्तयुगीन धार्मिक जीवन (Religious Life during Gupta Empire):

गुप्त राजाओं का शासन-काल ब्राह्मण (हिंदू) धर्म की उन्नति के लिये प्रख्यात है । गुप्त शासक वैष्णव धर्म के अनुयायी थे तथा उनकी उपाधि ‘परमभागवत’ की थी । उन्होंने वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया ।परन्तु स्वयं नैष्ठिक वैष्णव होते हुये भी उनका दृष्टिकोण पूर्णतया धर्म-सहिष्णु था तथा वे किसी भी अर्थ में प्रतिक्रियावादी नहीं थे । उनकी धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता की नीति ने इस काल में विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों को फलने-फूलने का समुचित अवसर प्रदान किया था ।

वे बिना किसी भेद-भाव के उच्च प्रशासनिक पदों पर सभी धर्मानुयायियों की नियुक्तियाँ करते थे । सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने पुत्र की शिक्षा-दीक्षा के लिये प्रख्यात बौद्ध विद्वान् वसु-बन्धु को नियुक्त किया था । चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ ने शैव वीरसेन तथा बौद्ध आम्रकार्द्दव को क्रमशः अपने प्रधान मंत्री एवं प्रधान सेनापति के रूप में नियुक्त किया था ।

फाहियान जो स्वयं बौद्ध था, उसकी धार्मिक सहिष्णुता की प्रशंसा करता है । कुमारगुप्त प्रथम के काल में बुद्ध, सूर्य, शिव आदि की उपासना को समान रूप से राज्य की ओर से प्रोत्साहन प्राप्त हुआ । नालन्दा में विख्यात बौद्ध-विहार उसी के समय में स्थापित किया गया जिसे राज्य की ओर से प्रभूत धन दान में दिया जाता था ।

स्कन्दगुप्त के शासन-काल में पाँच जैन तीर्थकंरों की पाषाण प्रतिमाओं का निर्माण करवाया गया था । वैन्यगुप्त नामक एक परवर्ती गुप्त शासक ने, जो शैव था, ‘वैवर्त्तिक संघ’ नामक महायान बौद्ध संस्थान को दान दिया था ।

यद्यपि गुप्तयुगीन प्रजा को अपनी इच्छानुसार धर्माचरण की स्वतन्त्रता प्राप्त थी तथापि उत्तर भारत में वैष्णव धर्म अत्यधिक लोकप्रिय था । गुप्तकाल के बहुसंख्यक अभिलेखों में भगवान विष्णु के मन्दिरों का उल्लेख मिलता है ।

विष्णु के अतिरिक्त शिव, सूर्य, नाग, यक्ष, दुर्गा, गंगा-यमुना आदि की उपासना होती थी । मन्दिर इस समय उपासना के प्रमुख केन्द्र थे । गुप्तकाल के अनेक मन्दिर एवं उनके अवशेष आज भी प्राप्त हैं । हिन्दू देवी-देवताओं के अतिरिक्त जैन एवं बौद्ध मतानुयायी भी देश में बड़ी संख्या में विद्यमान थे ।

इस प्रकार गुप्तयुग में विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों में सामंजस्य एवं मेल-मिलाप का वातावरण व्याप्त था । इस काल में अनेक विदेशियों ने हिन्दू धर्म एवं संस्कारों को अपना लिया था । जावा, सुमात्रा, बोर्नियो आदि दक्षिणी-पूर्वी एशिया के विभिन्न द्वीपों में हिन्दू-धर्म का व्यापक-प्रचार हो चुका था ।

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