Niband on hidhi ka bahvisya, bhavisya mein hindi
Answers
Answered by
2
महात्मा गाँधी और उनके समकालीनों ने इसीलिए हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की।
भाषा के रूप में हिंदी सहजतापूर्वक व्यावहारिक स्तर पर प्रचलन में है, स्वीकृत है और नई-नई चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है।
क, च, ट, त, प वर्गों के क्रम में रखा गया है - भले ही चार-चार
भारतीय बहुभाषिकता के संदर्भ में उपस्थित होनेवाले इन सब मुद्दों पर डॉ.राजेंद्र मिश्र ने अपनी कृति ‘संपर्क भाषा और लिपि’ (2008) में विस्तार से चर्चा की हैं। डॉ. राजेंद्र मिश्र कवि, कथाकार, समालोचक और शिक्षक के रूप में समादृत हैं और उनकी 45 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वे हिंदी भाषा चिंतन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। केंद्रीय हिंदी निदेशालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय की योजना में वे हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण भारत के उच्च शिक्षा और शोध संस्थानों की यात्रा भी कर चुके हैं। साथ ही अखिल भारतीय नागरी लिपि परिषद् से वे सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक उनके व्यापक अनुभव और चिंतन का परिणाम है; और प्रमाण भी।
यह सोचते हैं कि अंग्रेज़ी ही भारत की संपर्क भाषा हो सकती है। उन्हें यह जान लेना होगा कि कोई भी विदेशी भाषा हमारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती। राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक संपदा की सुरक्षा के लिए हमें अपनी भाषाओं के साथ ही एक संपर्क भाषा का भी विकास करना होगा। यह भाषा हिंदी ही हो सकती है। प्रायः यह कहा जाता है कि भूमंडलीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारण दुनिया के उन मुल्कों में भी अंग्रेज़ी का महत्व बढ़ रहा है जहाँ दो दशक पहले तक उसका प्रयोग नहीं होता था। लेकिन ध्यान देने की जरूरत है कि ऐसे देशों में उनकी अपनी भाषाओं को उचित स्थान प्राप्त है। इसलिए वहाँ की भाषाओं को अंग्रेज़ी से कोई खतरा नहीं है। वैसे भी किसी अन्य देश की तुलना भारत के बहुभाषिक परिदृश्य से नहीं की जा सकती। डॉ. राजेंद्र मिश्र याद दिलाते हैं कि बहुभाषिक यथार्थ का एक अकाट्य सत्य यह है कि भारत में हिंदी ही एक मात्र ऐसी भाषा है जिसे बहुसंख्यक भारतवासी बोलते हैं, समझते हैं। वही एक से अधिक प्रांतों की भाषा है। आजादी के बाद हिंदी का साहित्य बढ़ा है। उसके कोशों का विस्तार हुआ है। उसमें नए शब्दों का निर्माण हुआ है। आज वह संसार में सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा है। उसका अंतरभारतीय स्वरूप ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय रूप भी विकसित हुआ है। एशिया ही नहीं यूरोप और अमेरिका के देशों में भी हिंदी समझनेवाले लोग हैं। भारत के विशाल बाज़ार में प्रवेश के लिए उसे जनसंचार माध्यमों में अपनाया गया है। विज्ञापनों से लेकर अंग्रेज़ी के प्रसारणों तक को व्यापक जनता तक पहुँचाने के लिए हिंदी में ‘डब’ किया जाता है। प्रायः कहा जाता है कि आनेवाले समय में वही भाषाएँ जीवित रहेंगी जो बाज़ार की भाषाएँ होंगी। इस कसौटी पर हिंदी दुनिया के सबसे बड़े बाज़ार की संपर्क भाषा है। अतः उसका भविष्य सुरक्षित है।
कनफ्यूशियस ने कई शताब्दियों पहले कहा था कि यदि मुझे बिगड़ी हुई चीजों को सुधारना हो तो सबसे पहले मैं भाषा को सुधारूँगा क्योंकि इसके बिना मनुष्य की कल्पना नहीं की जा सकती। राजेंद्र मिश्र भी यही मानते हैं और उन्हें भी अनेक भाषा प्रेमियों की तरह यह लगता है कि आज का मीडिया, खासकर टेलीविजन, भाषा को बिगाड़ रहा है। इसमें संदेह नहीं कि हिंदी को अंधाधंुध अंग्रेज़ीमय बनाने की मुहिम हिंदी को कमजोर बनाती है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम बहुभाषिक समाज के सामाजिक यथार्थ से आँख मूँद लें और भाषा संपर्क के परिणामस्वरूप होनेवाले भाषा विकास का मार्ग अवरुद्ध कर दें। भाषा मिश्रण और भाषा परिवर्तन की अपनी शर्तें हैं। यदि उन शर्तों के अनुरूप हिंदी में अंग्रेज़ी का मिश्रण हो रहा है तो यह स्वागत के योग्य है क्योंकि इससे उसकी अपने लक्ष्य भाषा उपभोक्ता वर्ग के बीच संपे्रषणीयता बढ़ रही है। भाषा के आधुनिकीकरण को शुद्धतावाद के नाम पर रोका जाना श्रेयस्कर नहीं होगा।
डॉ. राजेंद्र मिश्र ने भारत की भाषा समस्या के विविध पक्षों पर विचार करते हुए भाषाई अस्मिता का सवाल भी उठाया है और प्रयोजनीयता का भी। संपर्क लिपि के रूप में उन्होंने देवनागरी की जमकर वकालत की है और अखिल भारतीय स्तर पर सर्वमान्य नीति के विकास की जरूरत बताई है। लिपि प्रौद्योगिकी के संदर्भ में कंप्यूटर पर हिंदी और देवनागरी के प्रयोग की आवश्यकता, संभावना और सीमा का भी खुलासा किया गया है। ध्यान रहे कि पिछले कुछ वर्षों में इस दिशा में तेजी से परिवर्तन हुए हैं तथा कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग तीव्र गति से बढ़ा है। अब तो कंप्यूटर को निर्देश देने और ब्राउज़र तक की सुविधा हिंदी में उपलब्ध है। विभिन्न विषयों का ज्ञान-विज्ञान डिजिटल रूप में हिंदी में आ रहा है। भारत में जब व्यापक रूप मंे कंप्यूटर आरंभ किया गया उस समय सरकार की जल्दीबाजी के कारण भारतीय भाषाओं के लिए अपने फांट की प्रतीक्षा नहीं की गई जिसके कारण काफी अराजकता कंप्यूटर पर हिंदी प्रयोग में देखी जाती है। परंतु अब ‘यूनिकोड’ की उपलब्धता और ‘कोड परिवर्तकों’ की खोज ने इस समस्या को बड़ी सीमा तक सुलझा दिया है। इसका अभिप्राय है कि कंप्यूटर पर हिंदी के प्रयोग के लिए अब आसमान दूर-दूर तक खुला है। यहाँ फिर दोहरना होगा कि भविष्य की विश्व भाषाओं के लिए यह भी एक शर्त समझी जाती है कि वे कंप्यूटर की भाषा हों। हिंदी इस कसौटी पर भी खरी उतर रही है। इसलिए आनेवाला समय हिंदी का समય હૈ|
भाषा के रूप में हिंदी सहजतापूर्वक व्यावहारिक स्तर पर प्रचलन में है, स्वीकृत है और नई-नई चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है।
क, च, ट, त, प वर्गों के क्रम में रखा गया है - भले ही चार-चार
भारतीय बहुभाषिकता के संदर्भ में उपस्थित होनेवाले इन सब मुद्दों पर डॉ.राजेंद्र मिश्र ने अपनी कृति ‘संपर्क भाषा और लिपि’ (2008) में विस्तार से चर्चा की हैं। डॉ. राजेंद्र मिश्र कवि, कथाकार, समालोचक और शिक्षक के रूप में समादृत हैं और उनकी 45 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वे हिंदी भाषा चिंतन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। केंद्रीय हिंदी निदेशालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय की योजना में वे हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण भारत के उच्च शिक्षा और शोध संस्थानों की यात्रा भी कर चुके हैं। साथ ही अखिल भारतीय नागरी लिपि परिषद् से वे सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक उनके व्यापक अनुभव और चिंतन का परिणाम है; और प्रमाण भी।
यह सोचते हैं कि अंग्रेज़ी ही भारत की संपर्क भाषा हो सकती है। उन्हें यह जान लेना होगा कि कोई भी विदेशी भाषा हमारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती। राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक संपदा की सुरक्षा के लिए हमें अपनी भाषाओं के साथ ही एक संपर्क भाषा का भी विकास करना होगा। यह भाषा हिंदी ही हो सकती है। प्रायः यह कहा जाता है कि भूमंडलीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारण दुनिया के उन मुल्कों में भी अंग्रेज़ी का महत्व बढ़ रहा है जहाँ दो दशक पहले तक उसका प्रयोग नहीं होता था। लेकिन ध्यान देने की जरूरत है कि ऐसे देशों में उनकी अपनी भाषाओं को उचित स्थान प्राप्त है। इसलिए वहाँ की भाषाओं को अंग्रेज़ी से कोई खतरा नहीं है। वैसे भी किसी अन्य देश की तुलना भारत के बहुभाषिक परिदृश्य से नहीं की जा सकती। डॉ. राजेंद्र मिश्र याद दिलाते हैं कि बहुभाषिक यथार्थ का एक अकाट्य सत्य यह है कि भारत में हिंदी ही एक मात्र ऐसी भाषा है जिसे बहुसंख्यक भारतवासी बोलते हैं, समझते हैं। वही एक से अधिक प्रांतों की भाषा है। आजादी के बाद हिंदी का साहित्य बढ़ा है। उसके कोशों का विस्तार हुआ है। उसमें नए शब्दों का निर्माण हुआ है। आज वह संसार में सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा है। उसका अंतरभारतीय स्वरूप ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय रूप भी विकसित हुआ है। एशिया ही नहीं यूरोप और अमेरिका के देशों में भी हिंदी समझनेवाले लोग हैं। भारत के विशाल बाज़ार में प्रवेश के लिए उसे जनसंचार माध्यमों में अपनाया गया है। विज्ञापनों से लेकर अंग्रेज़ी के प्रसारणों तक को व्यापक जनता तक पहुँचाने के लिए हिंदी में ‘डब’ किया जाता है। प्रायः कहा जाता है कि आनेवाले समय में वही भाषाएँ जीवित रहेंगी जो बाज़ार की भाषाएँ होंगी। इस कसौटी पर हिंदी दुनिया के सबसे बड़े बाज़ार की संपर्क भाषा है। अतः उसका भविष्य सुरक्षित है।
कनफ्यूशियस ने कई शताब्दियों पहले कहा था कि यदि मुझे बिगड़ी हुई चीजों को सुधारना हो तो सबसे पहले मैं भाषा को सुधारूँगा क्योंकि इसके बिना मनुष्य की कल्पना नहीं की जा सकती। राजेंद्र मिश्र भी यही मानते हैं और उन्हें भी अनेक भाषा प्रेमियों की तरह यह लगता है कि आज का मीडिया, खासकर टेलीविजन, भाषा को बिगाड़ रहा है। इसमें संदेह नहीं कि हिंदी को अंधाधंुध अंग्रेज़ीमय बनाने की मुहिम हिंदी को कमजोर बनाती है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम बहुभाषिक समाज के सामाजिक यथार्थ से आँख मूँद लें और भाषा संपर्क के परिणामस्वरूप होनेवाले भाषा विकास का मार्ग अवरुद्ध कर दें। भाषा मिश्रण और भाषा परिवर्तन की अपनी शर्तें हैं। यदि उन शर्तों के अनुरूप हिंदी में अंग्रेज़ी का मिश्रण हो रहा है तो यह स्वागत के योग्य है क्योंकि इससे उसकी अपने लक्ष्य भाषा उपभोक्ता वर्ग के बीच संपे्रषणीयता बढ़ रही है। भाषा के आधुनिकीकरण को शुद्धतावाद के नाम पर रोका जाना श्रेयस्कर नहीं होगा।
डॉ. राजेंद्र मिश्र ने भारत की भाषा समस्या के विविध पक्षों पर विचार करते हुए भाषाई अस्मिता का सवाल भी उठाया है और प्रयोजनीयता का भी। संपर्क लिपि के रूप में उन्होंने देवनागरी की जमकर वकालत की है और अखिल भारतीय स्तर पर सर्वमान्य नीति के विकास की जरूरत बताई है। लिपि प्रौद्योगिकी के संदर्भ में कंप्यूटर पर हिंदी और देवनागरी के प्रयोग की आवश्यकता, संभावना और सीमा का भी खुलासा किया गया है। ध्यान रहे कि पिछले कुछ वर्षों में इस दिशा में तेजी से परिवर्तन हुए हैं तथा कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग तीव्र गति से बढ़ा है। अब तो कंप्यूटर को निर्देश देने और ब्राउज़र तक की सुविधा हिंदी में उपलब्ध है। विभिन्न विषयों का ज्ञान-विज्ञान डिजिटल रूप में हिंदी में आ रहा है। भारत में जब व्यापक रूप मंे कंप्यूटर आरंभ किया गया उस समय सरकार की जल्दीबाजी के कारण भारतीय भाषाओं के लिए अपने फांट की प्रतीक्षा नहीं की गई जिसके कारण काफी अराजकता कंप्यूटर पर हिंदी प्रयोग में देखी जाती है। परंतु अब ‘यूनिकोड’ की उपलब्धता और ‘कोड परिवर्तकों’ की खोज ने इस समस्या को बड़ी सीमा तक सुलझा दिया है। इसका अभिप्राय है कि कंप्यूटर पर हिंदी के प्रयोग के लिए अब आसमान दूर-दूर तक खुला है। यहाँ फिर दोहरना होगा कि भविष्य की विश्व भाषाओं के लिए यह भी एक शर्त समझी जाती है कि वे कंप्यूटर की भाषा हों। हिंदी इस कसौटी पर भी खरी उतर रही है। इसलिए आनेवाला समय हिंदी का समય હૈ|
Similar questions