Hindi, asked by shreyasharan64, 3 months ago

niband on sadvriti
please i need big essay atleast 5 paragraphs​

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Answered by nanditapsingh77
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सद्वृत्त की उत्पत्ति दो शब्दों के मिलने से होती है। प्रथम शब्द सद् एवं द्वितीय शब्द वृत्त। सद् एक सत्य वाचक शब्द है जिसका प्रयोग सही, उपयुक्त, अनुकूल एवं धनात्मक रुप में होता है जबकि वृत्त से तात्पर्य घेरे से होता है अर्थात सद्वृत्त ऐसे सकारात्मक एवं सही नियमों का घेरा है जिनका पालन करने से मनुष्य का स्वास्थ्य उन्नत अवस्था में बना रहता है। वास्तव में सद्वृत्त मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कारकों का समूह है जिनका पालन करने मनुष्य का स्वास्थ्य उन्नत अवस्था में बना रहता है जबकि इनका अपालन करने से मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य का स्तर कमजोर हो जाता है एवं वह मनुष्य नाना प्रकार की व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है। सरल भाषा में सद्वृत्त को मानसचर्या की संज्ञा भी दी जाती है क्योकि इसके अन्र्तगत मनुष्य द्वारा किए जाने वाले करणीय कर्मों का समावेश होता है। सद्वृत्त मनुष्य द्वारा किए जाने वाले ऐसे करणीय कर्मों का समूह है जिससे उसका शारीरिक,मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य का स्तर उन्नत अवस्था में बना रहता है। आधुनिक काल में चिकित्सा विज्ञान के अन्तर्गत स्वस्थवृत्त को हाइजीन (Hygine) के नाम से जाना जाता है। इस संदर्भ में देववाणी में सूक्ति है -

कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं बºवशिनं निष्ठुरभाषिणं च।

सूर्योदये चास्तमिते शयानं विमु´चति श्रीर्यदि चक्रपाणि:।।

अर्थात जिनके शरीर और वस्त्र मैले रहते हैं, जिनके दाँतों पर मैल जमा रहता है, बहुत अधिक भोजन करते हैं, सदा कठोर बचन बोलते हैं तथा सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोते हैं, वे महादरिद्र होते हैं। यहाँ तक कि चाहे चक्रपाणि विष्णु भगवान ही क्यों ना हो, परन्तु उनको भी लक्ष्मी छोड देती है।

मनुष्य का धर्म के साथ अटूट सम्बन्ध है। मनुष्य को धार्मिक सद्वृत्ति रखनी चाहिए अर्थात धर्म में अपनी रुचि रखनी चाहिए। प्रश्न उपस्थित होता है कि धर्म क्या है ? धर्म के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए महर्षि मनु कहते हैं -

धृति: क्षमादमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्।।( मनु स्मृति)

अर्थात धैर्य, क्षमा, दम (अपनी वासनाओं पर नियंत्रण रखना), अस्तेय (चोरी नही करना), शौच (बाºय एवं आन्तरिक स्वच्छता), इन्द्रिय निग्रह (अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण), विद्या (ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन, वचन एवं कर्म से एक व्यवहार करना), अक्रोध (क्रोध नही करना) ये दस धर्म के लक्षण है। इसके साथ साथ मनुष्य को जो व्यवहार अपने अनुकूल नही लगता हो, ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ नही करना चाहिए। यह भी मनुष्य का धर्म है। धार्मिक सद्वृत्त का मनुष्य के शरीर, मन एवं आत्मा के साथ सीधा सम्बन्ध होता है। धर्म का पालन करने से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक बल की प्राप्ति होती है जबकि धर्म को धारण नही करने से मनुष्य की आन्तरिक शक्ति असन्तुलित हो जाती है जिसके परिणाम स्वरुप मनुष्य नाना प्रकार की व्याधियों से मनुष्य ग्रस्त हो जाता है। उपरोक्त नियमों के साथ साथ मनुष्य को पूर्ण रुप से स्वस्थ बने रहने के लिए अनुपयुक्त एवं अयोग्य क्रियाओं का त्याग करना चाहिए।

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