Hindi, asked by anantrajusharma, 11 months ago

nibandh for 50 points ​

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Answered by Anonymous
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पारिस्थतिकी-तंत्र के परिचालन में ऊर्जा की महती भूमिका है । दूसरे शब्दों में ऊर्जा ही इस तंत्र को परिचालित एवं नियंत्रित करती है । साथ ही ऊर्जा मानव की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति से लेकर विशाल उद्योगों एवं परिवहन को संचालित करती है ।

ऊर्जा का उपयोग वर्तमान युग में विकास का परिचायक बन गया है तथा इसकी कमी विकास में बाधक है । इसी क्रम में ऊर्जा के अधिकतम उपयोग की होड़ लगी हुई है, फलस्वरूप एक ओर ऊर्जा संकट उपस्थित हो गया है तो दूसरी ओर इसके अत्यधिक शोषण से पारिस्थितिकी पर भी विपरीत प्रभाव हो रहा है ।

विकास एवं प्रगति की अभिलाषा में आज तो ऊर्जा का अधिकतम उपयोग हो रहा है और जिस देश में जितनी अधिक ऊर्जा की खपत होती है उसे उतना ही विकसित माना जाता है । उदाहरणार्थ संयुक्त राज्य अमेरिका में ऊर्जा की खपत प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 11,626 किलोवाट है जबकि भारत में 210 किलोवाट और बँग्लादेश में मात्र 49 किलोवाट ।

उद्योगों में, परिवहन में तथा घरेलू उपयोग में ऊर्जा के उपयोग में निरंतर वृद्धि होने के कारण अनेक ऊर्जा स्रोतों की कमी होने लगी है तथा ऊर्जा संकट के प्रति आज संपूर्ण विश्व में चिंता व्याप्त है । यदि विगत 25 वर्षों के आँकड़ों पर दृष्टिपात करें तो यह तथ्य उभर कर आता है कि विश्व स्तर पर ईंधन की खपत दुगनी, तेल एवं गैस की खपत चौगुनी और बिजली की खपत सात गुनी बढ़ गई हैं ।

ऊर्जा के समस्त स्रोतों से होने वाली खपत में खनिज तेल तथा कोयला का प्रतिशत लगभग 44 और 39 है । जैसे-जैसे औद्योगिक एवं तकनीकी प्रगति का विस्तार हो रहा है ऊर्जा की खपत में वृद्धि हो रही है, जबकि इनके ज्ञात स्रोत सीमित हैं तथा समाप्त होने वाले हैं ।

स्पष्ट है कि ऊर्जा संसाधन तीव्र गति से समाप्त होते जा रहे हैं । इसके अतिरिक्त जल विद्युत एवं आणविक शक्ति का उपयोग दिन-प्रतिदिन अधिक होता जा रहा है तथा उनका प्रभाव पर्यावरण पर भी देखा जा सकता है । ऊर्जा के स्रोतों को मुख्यत: दो श्रेणियों में विभक्त किया जाता है ।

Answered by Anonymous
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Our world has always been faced with the problem of discrimination. It is one of the most discussed topics nowadays and throughout history. In all countries there is most likely at least one type of discrimination that affects different groups of people. The definition of discrimination is the denial of opportunity or equal rights for a specific group of people that may be differentiated by things such as their religion, color of skin, or gender. Discrimination can be confused with other terms such as prejudice and stereotype. The world we live in has been struggling with this sensitive subject for as long as we have recorded. Stereotypes are images held in our minds in regards to certain racial or cultural groups, without consideration of whether the images held are true or false. Stemming from stereotypes is prejudice. The prejudicial attitude occurs when we prejudge a person, good or bad, on the basis that the stereotypes associated with the person or group being prejudged are true. Discrimination is the combination of the terms mentioned above, but involves actually acting out with unfair treatment, directing the action towards the person or group. Prejudice and discrimination do not just occur racially, but it is found among gender, religion, culture, and geographical background. Remember that prejudice is a result of attitude and discrimination is a result of action.

Many people believe discrimination has made big steps forward, but has it really? If it has, why do people still get turned down, receive hate mail, or get ridiculed simply because they differ from each other. I guess these are questions we must ask ourselves. I guess you could also ask yourself if you have ever called anybody a name, looked at them different or judged them when you did not even know them or understand them. You may be thinking “That is not discrimination,” but, in fact, it is.

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