nibandh on जीवन में संस्कारों का महत्व
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सनातन धर्म में संस्कारों का विशेष महत्व है। इनका उद्देश्य शरीर, मन और मस्तिष्क की शुद्धि और उनको बलवान करना है जिससे मनुष्य समाज में अपनी भूमिका आदर्श रूप मे निभा सके। संस्कार का अर्थ होता है-परिमार्जन-शुद्धीकरण। हमारे कार्य-व्यवहार, आचरण के पीछे हमारे संस्कार ही तो होते हैं। ये संस्कार हमें समाज का पूर्ण सदस्य बनाते हैं। मनु और याज्ञवल्य ने कुल 13 संस्कारों की चर्चा की है, लेकिन बाद में कुल 16 संस्कार बताए गए। इनमें तीन जन्म के पहले, आठ जन्म के बाद विवाह तक, विवाह और उपसंवेशन [वर-वधू मिलन] और अंत्येष्टि [श्राद्घ] होते हैं। इस तरह भी कुल 13 ही संस्कार हुए। कुछ लेाग विवाह और उपसंवेशन को एक ही मानते हैं। कुछ लोग वानप्रस्थ और संन्यासग्रहण के पहले होने वाले कर्मकांड को इसी में शामिल करते हैं। कुछ ग्रंथों में श्राद्ध को संस्कार माना गया है कुछ में नहीं, लेकिन आजकल इसे भी संस्कार माना जाता है। ये संस्कार पूर्वजन्म के दोषों का दूर करने और नए गुणों का समावेश करने के लिए किए जाते हैं, जिससे मनुष्य अपनी सहज वृत्तियों का विकास करके अपना और समाज का कल्याण कर सके।
अब तो जन्म के पहले होने वाले संस्कार-गर्भाधान, पुंसवन और सीमंतोनयन के बारे में लोग जानते ही नहीं। जन्म के बाद होने वाले संस्कार अलग-अलग क्षेत्रों में अलग- अलग रूपों में होते है। जातकर्म, नामकरण, कर्णवेधन, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, क्षौरकर्म, उपनयन, विद्यारंभ, समावर्तन और विवाह में समावर्तन को लोग भूल ही गए हैं। इन संस्कारों का परिपाक तब पूर्ण होता है, जब उन्हें उचित मुहूर्त में और उचित तरीके से किया जाए। वृहस्पति संहिता में इन संस्कारों के लिए उचित मुहुर्त और विधि बताई गई है। ज्योतिषी और संस्कृत के विद्वान डॉक्टर गिरिजा शंकर शास्त्री ने अनेक स्नोतों से इस लुप्तप्राय संहिता का संकलन कर उसकी हिंदी टीका प्रकाशित कराई है। यह टीका कर्मकांड और ज्योतिष के साथ ही भारतीय संस्कारों में रुचि रखने वालों के लिए भी पठनीय है।
[रामधनी द्विवेदी]