Hindi, asked by sanskrutighisare1415, 2 months ago

nibandh- yadi mai adhyapk hota tho...​

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Answered by koushlyadevimourya
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Answer:

शिक्षक होना सचमुच बहुत बड़ी बात हुआ करती है। शिक्षक की तुलना उस सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से भी कर सकते हैं। जैसे संसार के प्रत्येक प्राणी और पदार्थ को बनाना ब्रह्मा का कार्य है, उसी प्रकार उन सब बने हुए को संसार के व्यावहारिक ढाँचे में ढालना, व्यवहार योग्य बनाना, सजा-संवार कर प्रस्तुत करना वास्तव में शिक्षक का ही काम हुआ करता है। शिक्षक ही अपनी सुसधित सशिक्षा के प्रकाश से अज्ञान के अन्धेरे को दूर कर आदमी को ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया करता है।

आदमी के मन-मस्तिष्क को एक नया आयाम देकर प्रगति और विकास की राह दिखाया और उस पर चलाया करता है या फिर ऐसा सब कुछ कर सकता है। लेकिन खेद के साथ स्वीकार करना और कहना पड़ता है कि आज कि शिक्षकों में ऐसा कर पाने क गुण और शक्ति नहीं रह गए हैं। उनकी मनोवृत्ति आम व्यावसायियों और दुकानदारों जसी हो गई है। ट्यूशन, कुंजियों आदि के चक्कर में पड़ कर, पास करने-कराने की गारण्टी दे-दिलाकर वे धन कमाने, सुख-सुविधा भोगी होनी की राह भर चल निकले। फलतः उनका गुरुत्व और शिक्षकत्व प्रायः दिखावा रह गया है, वास्तव में खण्डित हा चुका है। ऐसी वास्तविक स्थिति देखते-जानते हुए भी अनेकशः और रह-रहकर मेरे मन-मस्तिष्क में यह प्रश्न उठता ही रहता है कि यदि मैं शिक्षक होता, तो?

यदि मैं शिक्षक होता, तो एक वाक्य में कहूँ तो हर प्रकार से शिक्षकत्व के गौरव और गरिमा को बनाए रखने का प्रयास करता। मैं विद्या, उसी शिक्षा, उसकी आवश्यकता और महत्त्व को पहले तो स्वयं भली प्रकार से जानने और हृदयंगम करने का प्रयास करता. फिर उस प्रयास के आलोक में ही अपने पास शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा से आने वाले विद्यार्थियों को सही और उचित शिक्षा प्रदान करता। ऐसा करते समय में यह मान कर चलता और वह व्यवहार करता कि जैसा कबीर कह गए हैं;

“गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि-गढि काढ़े खोट।

भीतर हाथ सहार दे, बहार बाहे चोट ।।”

अर्थात् जिस प्रकार एक कुम्हार कच्ची और गीली मिटी को मोड़-तोड़ और कुशल हाथों से एक साँचे में ढालकर घड़ा बनाया करता है उसी प्रकार मै भी अपनी सुकमार-मति से छात्रों का शिक्षा के द्वारा नव-निर्माण करता, उन्हें एक नये साँचे में ढालता। जैसे कुम्हार, मिट्टी से घड़े का ढाँचा बना कर उसे भीतर से एक हाथ का सहारा दे और बाहर से ठोंक कर उसमें पड़े गढ़े आदि को समतल बनाया करता है, उसी प्रकार मैं अपने छात्रों के भीतर यानि मन-मस्तिष्क में ज्ञान का सहारा देकर उनकी बाहरी बुराइयाँ भी दूर कर के हर प्रकार से सुडौल, जीवन का भरपूर आनन्द लेने के योग्य बना देता। लेकिन सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि मैं शिक्षक नहीं हैं और जो शिक्षक हैं, वे अपने कर्तव्य का इस प्रकार गुरुता के साथ पालन करना नहीं चाहते।

यदि मैं शिक्षक होता, तो सब को समझाता कि आज जिसे शिक्षा-प्रणाली कहा जा रहा है, वास्तव में शिक्षा प्रणाली है ही नहीं। वह तो मात्र साक्षर बनाने वाली प्रणाली है। अतः यदि हम देश के बच्चों, किशोरों, युवकों को सचमुच शिक्षित बनाना और देखना चाहते हैं, तो इस को बदलकर इसके स्थान पर कोई ऐसी सोची-समझी और युग की आवश्यकताएँ पूरी कर सकने के साथ-साथ मानवता की आवश्यकताएँ भी पूरी करने वाली शिक्षा-प्रणाली अपनानी होगी, जो वास्तव में शिक्षित कर सके। शिक्षक होने पर मैं सबको यह भी बताने-समझाने की कोशिश करता कि सच्ची शिक्षा का अर्थ कुछ पढ़ना-लिखना सीख कर कुछ डिग्रियाँ प्राप्त कर लेना ही नहीं हुआ करता। सच्ची शिक्षा तो वह होती है कि जो मन-मस्तिष्क और आत्मा में ज्ञान का प्रकाश भर दे। इस नई ऊर्जा का संचार कर व्यक्ति को हर प्रकार से योग्य, समझदार और कार्य-निपुण बनाने के साथ-साथ मानवीय कर्त्तव्य परायणता से भी भर दे। जीवन में जीने की नई दष्टि और उत्साह दे।

यदि मैं शिक्षक होता, तो शिक्षा पाने के इच्छुकों को बताता कि शरीर को स्वस्थ-सुन्दर और सब प्रकार से सक्षम बनाना भी आवश्यक है। स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन-मस्तिष्क और आत्मा वाला व्यक्ति ही शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों को पूर्ण कर पाने में समर्थ हो पाया करता है। शिक्षक होने पर मैं पढ़ने वालों को हर प्रकार से एक पूर्ण, अन्तः बाह्य प्रत्येक स्तर पर सशक्त सम्पूर्ण व्यक्तित्व वाला मनुष्य बनाने का प्रयास करता, ट्यूशन्स, कुंजियों, गाइडों आदि का प्रचलन पूर्णतया प्रतिबन्धित करवा देता। किताबी शिक्षा पर बल न दे व्यावहारिक शिक्षा पर बल देता- वह भी बन्द कक्षा-भवनों में नहीं, बल्कि प्रकृति के खुले-उजले वातावरण में पर……..काश ! मैं शिक्षक होता- शिक्षक.

Answered by singhkarishma1472004
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Answer:

nibandh :

Explanation:

हमारे देश में प्राचीन काल में प्रायः आदर्श अध्यापक होते ही थे तथा उन्हें ही अध्यापन का कार्य सौपा जाता था ऐसे अध्यापकों का जीवन स्वार्थ तथा लोभ से दूर रहता था. उनका जीवन तपोमय तथा ह्रदय विशाल होता था. परन्तु आज हमें इसके विपरीत स्थिति दिखाई देती हैं.

आज के अध्यापक में ऐसा कर पाने का गुण व शक्ति नहीं रह गई हैं. उनकी मनोवृत्ति आम व्यावसायियों और दुकानदारों जैसी हो गई हैं. जिनका मुख्य लक्ष्य धन कमाना होता हैं. यह बहुत खेद की बात हैं हमे अपनी विचारधारा में परिवर्तन कर आदर्श जीवन अपनाना चाहिए, क्योंकि आदर्श अध्यापक ही राष्ट्र का सच्चा गुरु होता हैं तथा मानव जीवन को ऊँचा उठाता हैं.

आदर्श अध्यापक में अनेक गुण विद्यमान होते हैं. वह प्रत्येक विद्यार्थी के साथ प्रेम का व्यवहार करता हैं. वह दीन दुखी तथा असहाय विद्यार्थियों की आवश्यकतानुसार सहायता करना अपना कर्तव्य समझता हैं. वह सच्चे अर्थों में विद्वान् होता हैं. जिसे अपनी विद्वता पर अहंकार नहीं होता हैं. उसको अपने विद्यार्थियों के सम्मुख एक एक पग आदर्श का होता हैं. वह सदैव अपने विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण में अपना जीवन लगा देता हैं. उसका ह्रदय परोपकारी होता हैं.

आदर्श अध्यापक कभी भी अपने कर्तव्य के मार्ग से विचलित नहीं होता हैं. वह समाज व राष्ट्र को ऐसी सम्पति प्रदान करता हैं जिसे पाकर उस समाज व राष्ट्र के प्राणी युगों तक शान्ति व आनन्द प्राप्त करते रहते हैं. परन्तु खेद हैं की आज के युग में ऐसे आदर्श अध्यापक बड़ी कठिनाई से मिलते हैं. परन्तु जिन राष्ट्रों तथा समाजों को ऐसे अध्यापक मिल जाते हैं वे सौभाग्यशाली होते हैं.

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