Nirala ki kavitaon ki samiksha 600words in hindi language
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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में माघ शुक्ल ११, संवत् १९५५, तदनुसार २१ फ़रवरी, सन् १८९९ में हुआ था। वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा १९३० में प्रारंभ हुई। उनका जन्म मंगलवार को हुआ था। जन्म-कुण्डली बनाने वाले पंडित के कहने से उनका नाम सुर्जकुमार रखा गया।
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Explanation:निराला के देखने का दायरा बहुत बड़ा था. ‘देखना’ वेदना से गुज़रना है. उन्होंने ‘टूक कलेजे के करता’ हुआ अपने सा ही एक आदमी देखा. अपने शहर के रास्ते पर ‘गुरु हथौड़ा हाथ लिए’ पत्थर तोड़ती हुई औरत देखी. सभ्यता की वह राह देखी जहां से ‘जनता को पोथियों में बांधे हुए ऋषि-मुनि’ आराम से गुज़र गए. चुपके से प्रेम करने वाला ‘बम्हन लड़का’ और उसकी ‘कहारिन’ प्रेमिका देखी.
Nirala Hindi Kavita
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’. (जन्म: 21 फरवरी 1896 – मृत्यु: 15 अक्टूबर 1961) (फोटो साभार: हिंदी कविता/यूट्यूब)
21 फरवरी 1896 को जन्मे निराला को ‘महाप्राण’ कहा गया. हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा में ऐसा अर्थ-गांभीर्य लिए उपनाम शायद किसी अन्य को प्राप्त नहीं हुआ.उन्हें ‘महाप्राण’ से संबोधित किए जाने के कई आधार हो सकते हैं. एक उनका अपना जीवन जिसके बारे में उन्होंने कहा था,
दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूं आज जो नहीं कही
ग़ालिब की ज़िंदगी की तरह एक खास तरह के उदात्त भाव और करुणा ने उनके अनुभवों को ऐसे मानवीय तजुर्बे में बदल दिया, जिससे कोई भी व्यक्ति अपना निजी रिश्ता महसूस कर सकता था. निराला का दुःख उनके जीवन के परिवेश से संघर्ष की प्रक्रिया में पनपा था.
निराला इसी संघर्ष के कवि थे. उनका काव्य इसी संघर्ष का प्रतिफल था. डॉ रामविलास शर्मा ने निराला पर लिखा था,
‘काव्य की श्रेष्ठता उसके ट्रैजिक होने में है, पैथेटिक होने में नहीं. जहां संघर्ष है, परिवेश का विरोध सशक्त है, उससे टक्कर लेने वाले व्यक्ति का मनोबल दृढ़ है, वहां उदात्त स्तर पर मानव-करुणा व्यक्त होती है. वही ट्रैजडी है. शेष सब पैथेटिक है’ (निराला की साहित्य साधना, खंड 2, पेज. 241)
निराला की अपने परिवेश से टक्कर अपने समय की प्रचलित पुरानी काव्यगत रूढ़ियों से हुई. उनकी रचनाओं को पुराने साहित्य के मीमांसक अपनी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छापने से मना कर देते. उनके खिलाफ मुहिम चलाकर अपमानित करते. निराला ने अपनी इकलौती बेटी के गुजर जाने पर शोक-गीत लिखा तो यह दर्द भी छुपा न पाए.रचना के लौटने का दर्द इकलौती बेटी के निधन से जुड़कर फूट पड़ा-
लौटी रचना लेकर उदास
ताकता हुआ मैं दिशाकाश
‘दिशाकाश ताकते’ निराला की दृष्टि केवल निज जीवन की पीड़ा तक रही होती तो वह ‘महाप्राण’ न कहे गए होते, लेकिन ‘दिशाकाश’ के परे उन्होंने कुछ ऐसा देखा और ऐसी गहरी करुणा और तड़प से देखा जिस पर उनके किसी समकालीन की नजर नहीं पड़ी थी!
यही उनके ‘महाप्राण’ होने का राज था. उन्होंने ऐसा क्या देखा था! उन्होंने देखा,
जिन्होंने ठोकरें खाईं गरीबी में पड़े, उनके
हजारों-हा-हजारों-हाथ के उठते समर देखे
गगन की ताकतें सोयीं, जहां की हसरतें सोयीं
निकलते प्राण बुलबुल के बगीचे में अगर देखे
उनके देखने का दायरा बहुत बड़ा था. ‘देखना’ वेदना से गुज़रना है. उन्होंने ‘मुट्ठी भर दाने को, अपनी भूख मिटाने को फटी पुरानी झोली फैलाता, पछताता, पथ पर आता
‘टूक कलेजे के करता’ हुआ अपने सा ही एक आदमी देखा. अपने शहर के रास्ते पर ‘गुरु हथौड़ा हाथ लिए’ पत्थर तोड़ती हुई औरत देखी. धोबी, पासी, चमार, तेली देखे. अपनी उपज के दाम को तरसते किसान देखे. मुगरी लेकर बान कूटता हुआ किसान देखा.
दुष्यंत की तरह का ‘कमान बना हुआ आदमी’ देखा. सभ्यता की वह राह देखी जहां से ‘जनता को पोथियों में बांधे हुए ऋषि-मुनि’ आराम से गुजर गए. किला बनाकर अपनी रखवाली करते ‘राजे’ देखे. चुपके से प्रेम करने वाला ‘बम्हन लड़का’ और उसकी ‘कहारिन’ प्रेमिका देखी.
उन्होंने गीत लिखा,
बम्हन का लड़का
मैं उसको प्यार करता हूं
जाति की कहारिन वह,
मेरे घर की पनिहारिन वह,
आती है होते तड़का,
उसके पीछे में मरता हूं
निराला को ‘कहारिन के पीछे मरने’ की कीमत चुकानी ही थी. अपमान और बहिष्कार उनके