Math, asked by sakshi6509, 11 months ago

One man and two boys can do a piece of work in 12 days which would be done in 6 days by three men and one boy . How long would it have taken for one man to do it ?

Answers

Answered by amitnrw
21

Answer:

20 Days

Step-by-step explanation:

Let say Man can complete work alone in  M days

Man's 1 day work = 1/M

Let say Boy can complete work alone in  B days

Boy's 1 day work = 1/B

one Man & two boys 1 day work =  1/M + 2/B

one Man & two boys 12 days work =  12(1/M + 2/B)

3 Men & 1 boy 1 day work = 3/M + 1/B

3 Men & 1 boy 6 days work =  6(3/M + 1/B)

=> 12(1/M + 2/B) = 6(3/M + 1/B)

=> 2(1/M + 2/B) = (3/M + 1/B)

=> 2/M  + 4/B = 3/M  + 1/B

=> 3/B = 1/M

=>1/B = 1/3M

6(3/M + 1/B) = 6(3/M + 1/3M)  =  6(10M/3)  = 20/M = 20 * (man 1 day work)

Hence 1 Man will take 20 days

Answered by ItarSvaran
1

Answer:

इस कविता के लेखक अटल बिहारी वाजपेई जी हैं ऊपर प्रश्न का उत्तर है और नीचे की कविता मेरी तरफ से तोहफा

Step-by-step explanation:

कोटि-कोटि आकुल हृदयों में

सुलग रही है जो चिनगारी,

अमर आग है, अमर आग है।

उत्तर दिशि में अजित दुर्ग सा,

जागरूक प्रहरी युग-युग का,

मूर्तिमन्त स्थैर्य, धीरता की प्रतिमा सा,

अटल अडिग नगपति विशाल है।

नभ की छाती को छूता सा,

कीर्ति-पुंज सा,

दिव्य दीपकों के प्रकाश में-

झिलमिल झिलमिल

ज्योतित मां का पूज्य भाल है।

कौन कह रहा उसे हिमालय?

वह तो हिमावृत्त ज्वालागिरि,

अणु-अणु, कण-कण, गह्वर-कन्दर,

गुंजित ध्वनित कर रहा अब तक

डिम-डिम डमरू का भैरव स्वर ।

गौरीशंकर के गिरि गह्वर

शैल-शिखर, निर्झर, वन-उपवन,

तरु तृण दीपित ।

शंकर के तीसरे नयन की-

प्रलय-वह्नि से जगमग ज्योतित।

जिसको छू कर,

क्षण भर ही में

काम रह गया था मुट्ठी भर ।

यही आग ले प्रतिदिन प्राची

अपना अरुण सुहाग सजाती,

और प्रखर दिनकर की,

कंचन काया,

इसी आग में पल कर

निशि-निशि, दिन-दिन,

जल-जल, प्रतिपल,

सृष्टि-प्रलय-पर्यन्त तमावृत

जगती को रास्ता दिखाती।

यही आग ले हिन्द महासागर की

छाती है धधकाती।

लहर-लहर प्रज्वाल लपट बन

पूर्व-पश्चिमी घाटों को छू,

सदियों की हतभाग्य निशा में

सोये शिलाखण्ड सुलगाती।

नयन-नयन में यही आग ले,

कंठ-कंठ में प्रलय-राग ले,

अब तक हिन्दुस्तान जिया है।

इसी आग की दिव्य विभा में,

सप्त-सिंधु के कल कछार पर,

सुर-सरिता की धवल धार पर

तीर-तटों पर,

पर्णकुटी में, पर्णासन पर,

कोटि-कोटि ऋषियों-मुनियों ने

दिव्य ज्ञान का सोम पिया था।

जिसका कुछ उच्छिष्ट मात्र

बर्बर पश्चिम ने,

दया दान सा,

निज जीवन को सफल मान कर,

कर पसार कर,

सिर-आंखों पर धार लिया था।

वेद-वेद के मंत्र-मंत्र में,

मंत्र-मंत्र की पंक्ति-पंक्ति में,

पंक्ति-पंक्ति के शब्द-शब्द में,

शब्द-शब्द के अक्षर स्वर में,

दिव्य ज्ञान-आलोक प्रदीपित,

सत्यं, शिवं, सुन्दरं शोभित,

कपिल, कणाद और जैमिनि की

स्वानुभूति का अमर प्रकाशन,

विशद-विवेचन, प्रत्यालोचन,

ब्रह्म, जगत, माया का दर्शन ।

कोटि-कोटि कंठों में गूँजा

जो अति मंगलमय स्वर्गिक स्वर,

अमर राग है, अमर राग है।

कोटि-कोटि आकुल हृदयों में

सुलग रही है जो चिनगारी

अमर आग है, अमर आग है।

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