पंडित अलोपीदीन मुर्छित होकर क्यों गिर पड़े?
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वंशीधर के पिताजी सरकारी सेवा से निवृत्त हो चुके थे। घर की आर्थिक दशा खराब थी। पिताजी ने वंशीधर को समझाया था कि पद महत्त्वपूर्ण नहीं है, ऊपरी आमदनी महत्त्वपूर्ण है। अत: पद पर ध्यान न देकर ऐसी नौकरी खोजना, जहां रिश्वत मिलती रहे। उन्होंने रिश्वत लेने का तरीका भी बताया था।
वंशीधर को नमक विभाग में दारोगा के रूप में नियुक्ति मिली थी। वे ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे।
नमक विभाग का दारोगा बनने के छह महीने बाद की घटना है। वंशीधर का दफ़्तर यमुना नदी के पास था। वहां नावों का पुल बना हुआ था।
एक रात को दारोगा वंशीधर की नींद खुली तो आवाज़ों से उन्हें लगा कि पुल से गाड़ियां (बैलगाड़ियां) गुज़र रही थीं। उन्होंने सोचा कि इतनी रात को गाड़ियां क्यों जा रही हैं! अवश्य ही कोई गड़बड़ी थी। वे तैयार होकर पुल पर पहुंचे। बैलगाड़ियों में नमक के बोरे लदे थे। ज़ाहिर था कि नमक की तस्करी हो रही थी। गाड़ियां पंडित अलोपीदीन की थीं, जो कि उस इलाके के बहुत बड़े ज़मीनदार थे। अंग्रेज़ लोग भी उनके मेहमान होते थे। पंडित अलोपीदीन को धन की शक्ति पर विश्वास था। वे मानते थे कि धन से न्याय और नीति को भी खरीदा जा सकता है। धन के बल पर उन्होंने सबको खरीद लिया था। उन्होंने दारोगा वंशीधर के सामने एक हज़ार रुपए की रिश्वत का प्रस्ताव रखा, जिसे वंशीधर ने अस्वीकार कर दिया। धीरे-धीरे वे चालीस हज़ार रुपए तक देने के लिए भी तैयार हो गए, पर वंशीधर ने स्वीकार नहीं किया और जमादार बदलू सिंह को आदेश दिया कि पंडित अलोपीदीन को गिरफ़्तार कर लिया जाए। अलोपीदीन के जीवन में यह पहला अवसर आया था, जब धन काम नहीं आया। वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े।
अगले दिन अलोपीदीन को न्यायालय में पेश किया गया। वंशीधर ने स्पष्ट रूप से पक्षपात होते देखा। गवाह भी मुकर गए। न्यायालय भी वंशीधर से नाराज़ लग रहा था।
मजिस्ट्रेट ने अलोपीदीन को आरोपमुक्त करते हुए कहा कि उनके जैसा बड़ा आदमी थोड़े से लाभ के लिए नमक की तस्करी जैसा अपराध नहीं कर सकता। मजिस्ट्रेट ने वंशीधर की प्रशंसा की, किन्तु कहा कि उसे अपने कर्त्तव्य के पालन में सावधानी बरतनी चाहिए। ईमानदारी के जोश में होश नहीं खोना चाहिए।
एक सप्ताह बाद वंशीधर को नौकरी से निकाले जाने का आदेश मिल गया। उनकी ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा काम नहीं आई।
Answer:
अलोपिदीन ने देखा कि एक बलवान व्यक्ति हथकड़ी के साथ उसकी ओर बढ़ रहा है। उसने विनती भरी निगाहों से इधर-उधर देखा। तभी वह बेहोश होकर गिर पड़ा।
Explanation:
- पंडित अलोपीदीन की देवी लक्ष्मी में अटूट आस्था थी। वे कहते थे कि धरती पर ही नहीं, स्वर्ग में भी देवी लक्ष्मी का राज्य था। यह सीधा सच था। न्याय और नीति दोनों ही लक्ष्मी के खेल हैं। वह उन्हें किसी भी धुन पर नचा सकती हैं। फिर भी उसी मुद्रा में लेटे हुए वह बड़े विश्वास के साथ बोला, 'जाओ, मैं आ रहा हूँ।'
- धन की बांसुरी की इस मोहक धुन से वंशीधर अडिग रहे। अपनी नौकरी के लिए नया, वह ईमानदारी की लहर पर सवार था। उन्होंने कठोर स्वर में कहा, 'मैं उन नामाखारामों में से नहीं हूं जो कुछ कौड़ियों के लिए अपना सम्मान बेच देंगे। आप अभी गिरफ़्तार हैं। आपको कानून के तहत चालान किया जाएगा। मेरे पास बर्बाद करने का समय नहीं है। जमादार बदलू सिंह, उसे हिरासत में लेकर साथ ले आओ। यह मेरा आदेश है।'
- अलोपिडीन ने जिस जमीन को चट्टानी ठोस समझा था, वह उसके पैरों के नीचे से फिसलती हुई प्रतीत हो रही थी। प्रतिष्ठा और धन दोनों को भारी चोट लगी थी; लेकिन फिर भी उन्हें धन की संख्यात्मक ताकत पर पूरा भरोसा था। धर्म ने अर्थ को पैरों तले रौंदा था। अलोपिदीन ने देखा कि एक बलवान व्यक्ति हथकड़ी के साथ उसकी ओर बढ़ रहा है। उसने विनती भरी निगाहों से इधर-उधर देखा। तभी वह बेहोश होकर गिर पड़ा।
इस प्रकार यह उत्तर है।
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