Hindi, asked by munchun1987, 4 months ago

पंडित गुरुदत्त ने राजकीय कॉलेज लाहौर में भौतिकी के प्रोफेसर के रूप में कितने वर्ष अध्यापन कार्य किया​

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Answered by IphoneMaxPro0012
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अद्भुत प्रतिभा, अपूर्व विद्वत्ता एवं गम्भीर वक्तृत्व-कला के धनी पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी का जन्म 26 अप्रैल 1864 को मुल्तान के प्रसिद्ध 'वीर सरदाना' कुल में हुआ था।[1] आपके पिता लाला रामकृष्ण फारसी के विद्वान थे। आप पंजाब के शिक्षा विभाग में झंग में अध्यापक थे।

विशिष्ट मेधा एवं सीखने की उत्कट लगन के कारण वे अपने साथियों में बिल्कुल अनूठे थे। किशोरावस्था में ही उनका हिन्दी, उर्दू, अरबी एवं फारसी पर अच्छा अधिकार हो गया था तथा उसी समय उन्होंने 'द बाइबिल इन इण्डिया' तथा 'ग्रीस इन इण्डिया' जैसे बड़े-बड़े ग्रन्थ पढ़ लिये। कॉलेज के द्वितीय वर्ष तक उन्होंने चार्ल्स ब्रेडले, जेरेमी बेन्थम, जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे पाश्चात्त्य विचारकों के शतशः ग्रन्थ पढ़ लिये। वे मार्च, 1886 में पंजाब विश्वविद्यालय की एम ए (विज्ञान, नेचुरल साईन्स) में सर्वप्रथम रहे। तत्कालीन महान समाज सुधरक महर्षि दयानन्द के कार्यों से प्रभावित होकर उन्होंने 20 जून 1880 को आर्यसमाज की सदस्यता ग्रहण की। महात्मा हंसराज व लाला लाजपत राय उनके सहाध्यायी तथा मित्र थे। वे ‘द रिजेनरेटर ऑफ आर्यावर्त’ के वे सम्पादक रहे।

1884 में उन्होने ‘आर्यसमाज साईन्स इन्स्टीट्यूशन’ की स्थापना की। अपने स्वतन्त्र चिन्तन के कारण इनके अन्तर्मन में नास्तिकता का भाव जागृत हो गया। दीपावली (1883) के दिन, महाप्रयाण का आलिंगन करते हुए महर्षि दयानन्द के अन्तिम दर्शन ने गुरुदत्त की विचारधरा को पूर्णतः बदल दिया। अब वे पूर्ण आस्तिक एवं भारतीय संस्कृति एवं परम्परा के प्रबल समर्थक एवं उन्नायक बन गए। वे डीएवी के मन्त्रदाता एवं सूत्रधार थे। पूरे भारत में साईन्स के सीनियर प्रोफेसर नियुक्त होने वाले वह प्रथम भारतीय थे। वे गम्भीर वक्ता थे, जिन्हें सुनने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। उन्होंने कई गम्भीर ग्रन्थ लिखे, उपनिषदों का अनुवाद किया। उनका सारा कार्य अंग्रेजी में था। उनकी पुस्तक ‘द टर्मिनॉलॅजि ऑफ वेदास्’ को आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकृत किया गया। उनके जीवन में उच्च आचरण, आध्यात्मिकता, विद्वत्ता व ईश्वरभक्ति का अद्भुत समन्वय था। उन्हें वेद और संस्कृत से इतना प्यार था कि वे प्रायः कहते थे कि - "कितना अच्छा हो यदि मैं समस्त विदेशी शिक्षा को पूर्णतया भूल जाऊँ तथा केवल विशुद्ध संस्कृतज्ञ बन सकूँ।" ‘वैदिक मैगजीन’ के नाम से निकाले उनके रिसर्च जर्नल की ख्याति देश-विदेश में फैल गई। यदि वे दस वर्ष भी और जीवित रहते तो भारतीय संस्कृति का बौद्धिक साम्राज्य खड़ा कर देते। पर, विधि के विधान स्वरूप उन्होंने 19 मार्च 1890 को चिरयात्रा की तरफ प्रस्थान कर लिया। पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ ने 2000 ई में उनके सम्मान में अपने रसायन विभाग के भवन का नाम ‘पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी हाल’ रखा है।

Answered by Sasmit257
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Explanation:

Answer:

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नारी अपने परिवार की आधारशिला होती है।वर्तमान युग।

दोहरी भूमिका निभा रही है। वह पुरुषों के साथ कंधे से की

मिलाकर चल रही है। उसने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी

पहचान बना ली है। राजनीति क्षेत्र हो, चाहे चिकित्सा क्षेत्र

प्रशासनिक क्षेत्र वह हर क्षेत्र में अपनी कार्यक्षमता का कुश

परिचय दे रही है। आज सेना तथा पुलिस-सेना में भी महि

कार्य कर रही हैं।हमारे देश की भूतपूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रति

पाटिल भी महिला थी जिन्होंने प्रशासन का कार्य सफलता

निभाया था।कहा जाता है कि हमारा लोकतंत्र यदि कहीं कमजोर है तो उसकी एक बड़ी वजह हमारे राजनैतिक दल हैं। वह प्रायः

अव्यवस्थित और अमर्यादित हैं और अधिकांशतः निष्ठा और कर्मठता से संपन्न नहीं है। हमारी राजनीति का स्तर

प्रत्येक दृष्टि से गिरता जा रहा है। लगता है उसमें सुयोग्य और सच्चरित्र लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। लोकतंत्र के

मूल में लोक निष्ठा होनी चाहिए, लोकमंगल की भावना और लोक अनुभूति होनी चाहिए, लोक संपर्क होना चाहिए।

हमारे लोकतंत्र में इन आधारभूत तत्वों की कमी होने लगी है इसलिए लोकतंत्र कमजोर दिखाई पड़ता है। हम प्रायः

सोचते हैं कि हमारा देशप्रेम कहां चला गया, देश के लिए कुछ करने, मर-मिटने की भावना कहां चली गई? त्याग और

बलिदान के आदर्श कैसे, कहां लुप्त हो गए? आज हमारे लोकतंत्र को स्वार्थाधता का घुन लग गया है। क्या राजनीतिज्ञ,

क्या अफसर अधिकांश यही सोच रखते हैं कि वे किस तरह से स्थिति का लाभ उठाएं, किस तरह एक दूसरे का इस्तेमाल

करें। आम आदमी अपने आप को लाचार पाता है और ऐसी स्थिति में उसकी लोकतांत्रिक आस्था डगमगाने लगती हैं।

लोकतंत्र की सफलता के लिए हमें समर्थ और सक्षम नेतृत्व चाहिए, एक नई दृष्टि, एक नई प्रेरणा, एक नई संवेदना,

नया आत्मविश्वास, नया संकल्प और समर्पण आवश्यक है। लोकतंत्र की सफलता के लिए हम सब अपने आप से पूछे

कि हम देश के लिए क्या कर सकते हैं और हम सिर्फ पूछ कर ही न रह जाएं बल्कि संगठित होकर समझदारी, विवेक

और संतुलन से लोकतंत्र को सफल और सार्थक बनाने में लग जाएं।

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