Hindi, asked by lamya19, 7 months ago

पुंडरीक को राजा की वास्तविकता का पता किस
प्रकार चला?
पाठ- अनोखा पुरस्कार

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Answered by kunal1291
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Explanation:

आधी रात का समय था. चारों ओर घना अँधेरा छाया हुआ था. मूसलाधार बारिश हो रही थी, बादल रह – रहकर गरज उठते थे. बिजली के बार – बार कौंधने से वातावरण बहुत ही भयानक हो उठा था. इस बुरे मौसम में सारा उज्जयिनी नगर अपने घरों में दुबका मीठी नींद सो रहा था.

राजमहल के अधिकांश दीपक बुझ चुके थे. जो बचे रह गए थे, वे भी बस बुझने ही वाले थे.ऐसे तूफानी मौसम में राजमहल का द्वारपाल मात्रिगुप्त राजमहल की एक अटारी के नीचे खड़ा अपने दुर्भाग्य पर सोच – विचार कर रहा था. अपने भाग्य को कोस रहा था.

राजा विक्रमादित्य की सेवा करते – करते उसे एक साल बीत चुका था. लेकिन अभी तक उनसे भेंट तक भी नहीं हो सकी थी. वह निर्धन आदमी था, लेकिन किसी गुनी राजा के आश्रय में काम करना चाहता था. वह एक असाधारण कवि था और अपनी कला के पारखी की तलाश कर रहा था.

एक दिन उसने उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के गुणों की चर्चा सुनी. राजा विद्वानों और गुणियों को उचित सम्मान देते हैं. उसने यह सुन राजा विक्रमादित्य के दरबार में जाने का निर्णय किया. मात्रिगुप्त ने बहुत प्रयास किया किन्तु वह राजा से मिल न सका. बड़ी कठिनाई से उसे द्वारपाल का काम मिला. राजा से मिलने की प्रतीक्षा करते हुए उसे एक साल बीत चुका था.

उधर उस तूफानी रात में भी राजा विक्रमादित्य की आँखों से नींद कोसों दूर थी. वे उस समय एक गंभीर समस्या के बारे में सोच रहे थे. वह समस्या उन्हें कई दिनों से सता रही थी. सोचते हुए उनकी नजर अचानक राजमहल के बाहर दिख रही एक कली- सी आकृति पर पड़ी. उत्सुकतावश उन्होंने जोर से पुकारा, “द्वार पर कौन खड़ा है?” राजा का स्वर पहचानकर द्वारपाल चौका. उसने सावधान होकर अपना परिचय दिया, “मैं मात्रीगुप्त हूँ, महाराज ! महल का द्वारपाल.”

महाराज ने प्रश्न किया, “ओह ,ठीक है. अभी कितनी घड़ी की रात्रि शेष है ?”

“महाराज ! अभी डेढ़ प्रहर रात्रि और शेष है.” द्वारपाल ने उत्तर दिया.

“यह तुम्हें कैसे मालूम ?” महाराज ने फिर प्रश्न कर दिया.

राजा के इस प्रश्न पर मात्रिगुप्त ने सोचा कि अपनी बात कहने का इससे अच्छा मौका और नहीं हो सकता. उसने राजा के प्रति अपनी कर्तव्यनिष्ठा, अपनी निर्धनता, अपनी चिंता और उस कारण नींद न आना आदि इन सभी परेशानियों की एक कविता बनाकर भावपूर्ण शब्दों में राजा को सुना di.

विद्वान सम्राट सुनके चकित भी हुए और मुग्ध भी. उसके शब्दों में छुपी उपेक्षा और उसकी निर्धनता के वर्णन ने राजा के ह्रदय को व्यथित कर दिया. सम्राट सोचने लगे कि इस अनोखे कवि के लिए उन्हें क्या करना चाहिए. वह कुछ कह न सके, बस सोचते ही रह गए.

बहुत देर तक राजा की ओर से कोई उत्तर न मिलने पर मात्रिगुप्त ने सोचा कि उसका प्रयास सफल नहीं हुआ. उसे लगा कि कहीं उसने राजा को नाराज तो नहीं कर दिया.

अगले दिन प्रात: महाराज ने मात्रिगुप्त को बुलवाया. उसने सोचा कि कल की गई अशिष्टता पर महाराज जरूर उसे कोई कठोर दण्ड देंगे. वह डरते – डरते राजदरबार में पहुंचा. राजा ने बिना किसी भूमिका के कहा, “मात्रिगुप्त ! तुम्हें इसी समय कश्मीर जाना होगा और वहाँ मेरा लिखा यह अत्यंत गोपनीय पत्र वहाँ के प्रधानमन्त्री को पहुंचाना होगा. ध्यान रहे, यह पत्र सिर्फ उन्हीं के हाथों में पहुंचे.”

“जैसी आज्ञा अन्नदाता ! आपके आदेश का पालन होगा .” मात्रिगुप्त बोला और राजा के हाथ से वह पत्र ले लिया.

अब तो मात्रिगुप्त और भी ज्यादा परेशान हो उठा. उज्जयिनी से कश्मीर बहुत दूरी पर था. लेकिन जाना तो था ही. वह क्या –क्या सपने संजोकर इस राज्य में आया था और अब कहाँ दण्ड की तरह महाराज ने उसे इतनी दूर जाने का आदेश दे डाला था.

कई दिनों तक लगातार यात्रा करने के बाद जब मात्रिगुप्त कश्मीर पहुंचा तो वहाँ के मनोरम प्राकृतिक दृश्यों को देखकर उसकी रास्ते की सारी थकावट दूर हो गई . राजमहल पहुँचकर उसने अपने आने की सूचना प्रधानमन्त्री तक पहुंचा दी. प्रधानमन्त्री ने कुछ ही देर बाद उसे अंदर बुलवा लिया. मात्रिगुप्त ने महाराज का दिया हुआ वह गोपनीय पत्र प्रधानमन्त्री को सौंप दिया. पूरा पत्र पढने के बाद अचानक प्रधानमन्त्री के चेहरे के भाव बदल गए. उनका चेहरा अपार खुशी से भर गया. उन्होंने पूछा, “क्या आप ही मात्रिगुप्त हैं?”

“जी हाँ, मेरा ही नाम मात्रिगुप्त है.” मात्रिगुप्त ने बिना किसी भाव के उत्तर दिया. इतना सुनते ही प्रधानमन्त्री ने प्रतिहारी को बुलाकर तुरंत राज्याभिषेक की तैयारी के आदेश दे दिये. पूरे राज्य में घोषणा करवा दी गई. सभी प्रतिष्ठित अधिकारीयों को बुला लिया गया. मंगल वाद्य गूंगने लगे और वैदिक मन्त्रों का जाप होने लगा. इन अदभुत परिवर्तनों को देखकर मात्रिगुप्त हैरान था. उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था.

तभी अचानक प्रधानमन्त्री ने उसके समीप आकर कहा, “महाराज ! अब आप सम्राट विक्रमादित्य के आदेशानुसार इस देश के राजा हैं. आज से यह देश आपका है.”

यह सुनकर मात्रिगुप्त को तनिक भी विश्वास न हुआ. उसने सोचा कि कहीं उसके साथ बहुत बड़ा मजाक तो नहीं किया जा रहा है. प्रधानमन्त्री ने आगे कहा, “यहाँ के राजा का कोई उत्तराधिकारी नहीं था. कुछ समय पूर्व ही राजा की मृत्यु हो गई. राज्य के सभी कार्यों को संभालने के लिए मैं बार – बार महाराज विक्रमादित्य से किसी योग्य अधिकारी को भेजने की माँग कर रहा था. आज आपके यहाँ पहुँचने से मेरी वह मुराद पूरी हो गई. आइए महाराज मात्रिगुप्त, राज्याभिषेक के मुहूर्त का समय निकला जा रहा है ”

मात्रिगुप्त सम्राट विक्रमादित्य की इस अदभुत कृपा से भाव विभोर हो गया. उसने जैसा सोचा था उससे बहुत अधिक उसे मिल गया था. पूरे राज्य में खुशियां मनाई जाने लगीं. मात्रिगुप्त राजा बनने के बाद महाराज विक्रमादित्य से फिर कभी मिल न पाया.

इस अनोखे पुरस्कार के लिए अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उसने अनेकों बहुमूल्य उपहारों के साथ अपने दूत के हाथों महाराज के पास भिजवा दी. साथ ही उसने कई कवितायेँ भी भेजी जिसमें राजा की इस दान वीरता और उनके गुणों का अनुपम तरीके से वर्णन किया गया था.

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Answered by anshtomar64
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Sardaar Ki chakit kyon Ho Gaya answer

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