पं. गुरुदत्त की नास्तिकता कैसे दूर हुई?
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पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी
आज 26 अप्रैल जयन्ती पर
मनमोहन कुमार आर्य
महान कार्य करने वाले लोगों को महापुरुष कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि महापुरुष अमर होते हैं। भारत में महापुरुषों की एक लम्बी श्रृंखला वा परम्परा है। ऐसे ही एक महापुरुष पं. गुरुदत्त विद्यार्थी थे। आप उन्नीसवीं शताब्दी में तेजी से पतन को प्राप्त हो रहे सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति के रक्षक, सुधारक, देश की आजादी के मन्त्रदाता व प्रेरक सहित समग्र सामाजिक व राजनैतिक क्राान्ति के जनक ऋषि दयानन्द के भक्त, अनुयायी और उनके मिशन के प्रचारक, प्रसारक व रक्षक थे। 26 अप्रैल उनकी जयन्ती का दिवस है। उनके देश व जाति पर ऋण से उऋण होने के लिए उन्हें व उनके कार्यों को स्मरण कर श्रद्धांजलि देना प्रत्येक वेदभक्त, ऋषिभक्त, आर्यसमाज के अनुयायी व देशवासी का कर्तव्य है। यदि वह न हुए होते तो आर्यसमाज का इतना विस्तार न होता, डीएवी आन्दोलन जो उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी में देश भर में फैला, वह न हुआ होता और उन्होंने जो साहित्य हमें दिया, उससे आर्यसमाज व देश वंचित रहता।
आपने मुलतान में अपने दो घनिष्ठ मित्रों लाला चेतनानन्द व पण्डित रैमलदास की प्रेरणा से 20 जून सन् 1880 को मुलतान के आर्यसमाज की सदस्यता ग्रहण की थी। आर्यसमाज में प्रविष्ट होते ही आपने संस्कृत की आर्ष व्याकरण का अध्ययन आरम्भ किया और कुछ समय में इसमें योग्यता प्राप्त कर ली। मुलतान में ही आप डा. वैलन्टाइन की Easy Lessons in Sanskrit Grammer पुस्तक को पढ़कर ऋषि दयानन्द की ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के संस्कृत भाग को बिना किसी की सहायता के समझने में सक्षम हो गये थे। आपका संस्कृत प्रेम बढ़ता गया और एक समय ऐसा भी आया कि आप अपने घर पर ही संस्कृत की कक्षायें चलाने लगे जिसमें आर्यसमाज के अनुयायियों सहित बड़े बड़े सरकारी अधिकारी भी आपसे संस्कृत व्याकरण पढ़ते थे।
‘मैंने स्वामी दयानन्द को देखा: गोस्वामी दामोदर शास्त्री’
महर्षि दयानन्द के जीवन काल में अनेक लोग उनके सम्पर्क में आये और उनके व्यक्तित्व व उनकी ज्ञानमयी प्रतिभा से आलोकित व प्रभावित हुए। ऐसे कुछ उदाहरण वेदवाणी पत्रिका के सम्पादक पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने पत्रिका के मार्च, 1985 अंक में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी का एक लेख ‘‘ऋषि दयानन्द के जीवन की कुछ अप्रकाशित घटनाएं” प्रकाशित कर दिए हैं। यहां हम प्रथम दो उदाहरण पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।
उदाहरण 1
श्री पं. धर्मदेव जी देहरादून वाले चार पांच वर्ष काशी में पिद्या प्राप्त करते रहे। उन्होंने ‘काशी के विद्वान् और ऋषि दयानन्द’ एक लेख 1936 ई. में दिया था। ‘प्रकाश’ उर्दू साप्ताहिक में छपा था। दुःख की बात है कि यह लेख अधूरा छपा था। इसमें आपने लिखा कि आपके गुरु और काशी के ‘प्रमुख’ विद्वान गोस्वामी दामोदर शास्त्री जी ने एक बार उन्हें बताया कि वह काशी शास्त्रार्थ में उपस्थित थे। महर्षि दयानन्द का मुख ब्रह्मचर्य के तेज से चमक दमक रहा था। वह धारा प्रवाह संस्कृत बोलते थे। मुख ऐसे चमक रहा था जैसे सूर्य। बोलते हुए ऐसे लगते थे जैसे सिंह गर्जना कर रहा हो। उनके भाषण से सन्नाटा छा जाता था। उनकी जैसी संस्कृत काशी का कोई पण्डित न बोल सकता था। वह बहुत बड़े पण्डित थे, इसमें कोई सन्देह नहीं।
उदाहरण 2
काशी शास्त्रार्थ के प्रत्यक्षदर्शी एक अन्य विद्वान् (जिनका नाम देना पं. धर्मदेव जी छोड़ गये) के सामने पं. अखिलानन्द के विचार सुनकर किसी ने ऋषि को गाली दे दी तो वह क्रोधित हो गये। उस दिन कुछ पढ़ाया ही नहीं। उन्होंने भी तब कहा कि काशी शास्त्रार्थ में उनकी ओर कोई देख भी न सकता था। वह (दयानन्द) अकेला निर्भीक घूमता था। वह ब्रह्मचारी निष्कलंक था।
यह दोनों घटनायें हमें अच्छी लगी। पाठकों को भी पसन्द आयेंगी, ऐसी आशा करते हैं। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी और पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी का यथायोग्य सत्कारपूर्वक हार्दिक धन्यवाद।