पेङ की आत्मकथा,निबन्ध
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पेड़ की आत्मकथा।
मैं एक पेड़ हु। आज के करीब चालीस साल पहले , ठीक इसी जगह मेरा जन्म हुआ था। रिया के मुह से गिरे हुए दाने से मेरे जीवन का शुरुवात हुआ था। अभी भी वह पल याद है , जब मैंने पहली बार , सूरज की किरणों को महसूस किया। क्या अमूल्य पल था वो। बचपन में मेरा आकर तो बहुत ही छोटा था , यही कही एक - दो फुट का था मैं।
बचपन में मुझे बहुत कठिनिया भी झेलनी परती थी , छोटे कद का होने के कारन जानवर मुझे हमेशा तंग करते थे, कितने बार तो मेरी जान जाते - जाते बची। खैर, उन दिनों की बात रहे , धीरे - धीरे साल दो साल के अंदर मैं बढ़ा हुआ। मेरी कद थोड़ी लम्बी हुयी , चलो शुक्र है , अब मुझे हमेशा जानवरो का डर नही लगा रहता था। अभी दुनिया को नया ही देख रहा थे मैं , नयी नयी चीज़े देखा , नए लोगो को जाना आदि।
ऐसे ही और तीन - चार साल बिट गए , अब माओं बढ़ा हो गया था , और मैं वो सब करने के लायक बन चूका था जो बढे पैर कर सकते है। तो अब मैं , मनुष्यो को अपनी सेवाएं प्रदान करता। उन्हें अपनी शीतल छाया देता हु, उन्हें फल - फूल देता हु , लकड़ी , कागज़ , बादाम , और सबसे अमूल्य - ओषजन ( ऑक्सीजन ) मानव जाती मुझसे ही प्राप्त करती है।
पर मानव को देखो, वो तो मुझे जैसे लाखो पेड़ को , जो उन्हें इतनी ज़रूरी चीज़े देता है , उन्हें ही काट डालता है।
कुछ साल पहले तो हालत और बुरी , अब तो फिर भी , सरकार के कुछ उद्योगो के सहारे हमारी सुरक्षा होती है। अब मैं थोड़ा बूढ़ा हो रहा हु , फिर भी चालीस वर्ष मुझ जैसे बरगद के वृक्ष के लिए तो कुछ भी नही , अभी तो और हज़ारो साल मुझे यह दुनिया देखनी है , सच पेड़ होने के कुछ आभाव तो है , पर ज़रा यह भी जानू कौन इस दुनिया को सौ - दोसौ साल तक देखेगा, मेरी तरह। पेड़ होना भी कितना भग्यवान है।