पानीपत के तीनों युद्धों का 200 शब्दों वर्णन कीजिये
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पानीपत में तीन ऐतिहासिक लड़ाईयां हुईं -
पहली लड़ाई - 21 अप्रैल 1526(बाबर एवं इब्राहिम लोदी) पानीपत का प्रथम युद्ध
दूसरी लड़ाई - 5 नवंबर1556 बैरम ख़ाँ(अकबर का सेनापति ) एवं हेमू(शेर शाह सूरी का सेनापति ) पानीपत का द्वितीय युद्ध
तीसरी लड़ाई - 14 जनवरी 1761 (मराठा एवं अहमदशाह अब्दाली) पानीपत का तृतीय युद्ध
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पानीपत की प्रथम लड़ाई – FIRST PANIPAT WAR
पानीपत में तीन भाग्यनिर्णायक लडाईयाँ यहाँ हुई, जिन्होंने भारतीय इतिहास की धारा ही मोड़ दी. पानीपत की पहली लड़ाई -Panipat War 1 21 अप्रैल, 1526 ई. को दिल्ली के सुलतान इब्राहीम लोदी और मुग़ल आक्रमणकारी बाबर के बीच हुई. इब्राहीम के पास एक लाख संख्या तक की फ़ौज थी. उधर बाबर के पास मात्र 12,000 फ़ौज तथा बड़ी संख्या में तोपें थीं. रणविद्या, सैन्य-सञ्चालन की श्रेष्ठता और विशेषकर तोपों के नए और प्रभावशाली प्रयोग के कारण बाबर ने इब्राहीम लोदी के ऊपर निर्णयात्मक विजय प्राप्त की. लोदी ने रणभूमि में ही प्राण त्याग दिया. पानीपत की पहली लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली और आगरा पर बाबर का दखल हो गया और उससे भारत में मुग़ल राजवंश का प्रचालन हुआ.
पानीपत की दूसरी लड़ाई – SECOND PANIPAT WAR
पानीपत की दूसरी लड़ाई -Panipat War 2 ( 5 नवम्बर, 1556 ई. को अफगान बादशाह आदिलशाह सूर के योग्य हिन्दू सेनापति और मंत्री हेमू और अकबर के बीच हुई, जिसने अपने पिता हुमायूँ से दिल्ली का तख़्त पाया था. हेमू के पास अकबर से कहीं अधिक बड़ी सेना थी. उसके पास 1500 हाथी भी थे. प्रारम्भ में मुग़ल सेना के मुकाबले में हेमू को सफलता प्राप्त हुई परन्तु संयोगवश एक तीर हेमू के आँख में घुस गया और यह घटना युद्ध में जीत रहे हेमू के हार का कारण बन गई. तीर लगने से हेमू अचेत होकर गिर पड़ा और उसकी सेना भाग खड़ी हुई. हेमू को गिरफ्तार कर लिया गया और उसे किशोर अकबर के सामने ले जाया गया. अकबर ने उसका सर धड़ से अलग कर दिया. पानीपत की दूसरी लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली और आगरा अकबर के कब्जे में आ गए. इस लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली के तख़्त के लिए मुगलों और अफगानों के बीच चलनेवाला संघर्ष अंतिम रूप से मुगलों के पक्ष में निर्णीत हो गया और अगले तीन सौ वर्षों तक दिल्ली का तख़्त मुगलों के पास रहा.पानीपत की तीसरी लड़ाई -Panipat War 3 ने भारत का भाग्य निर्णय कर दिया जो उस समय अधर में लटक रहा था. पानीपत का तीसरा युद्ध 1761 ई. में हुआ. अफगान का रहने वाला अहमद अब्दाली वहाँ का नया-नया बादशाह बना था. अफगानिस्तान पर अधिकार जमाने के बाद उसने हिन्दुस्तान पर भी कई बार चढ़ाई की और दिल्ली के दरबार की निर्बलता और अमीरों के पारस्परिक वैमनस्य के कारण अहमद अब्दाली को किसी प्रकार की रुकावट का सामना नहीं करना पड़ा. पंजाब के सूबेदार की पराजय के बाद भयभीत दिल्ली-सम्राट ने पंजाब को अफगान के हवाले कर दिया. जीते हुए देश पर अपना सूबेदार नियुक्त कर अब्दाली अपने देश को लौट गया. उसकी अनुपस्थिति में मराठों ने पंजाब पर धावा बोलकर, अब्दाली के सूबेदार को बाहर कर दिया और लाहौर पर अधिकार जमा लिया. इस समाचार को सुनकर अब्दाली क्रोधित हो गया और बड़ी सेना ले कर मराठों को पराजित करने के लिए अफगानिस्तान से रवाना हुआ. मराठों ने भी एक बड़ी सेना एकत्र की, जिसका अध्यक्ष सदाशिवराव और सहायक अध्यक्ष पेशवा का बेटा विश्वासराव था. दोनों वीर अनेक मराठा सेनापतियों तथा पैदल-सेना, घोड़े, हाथी के साथ पूना से रवाना हुए. होल्कर, सिंधिया, गायकवाड़ और अन्य मराठा-सरदारों ने भी उनकी सहायता की. राजपूतों ने भी मदद भेजी और 30 हजार सिपाही लेकर भरतपुर (राजस्थान) का जाट-सरदार सूरजमल भी उनसे आ मिला. मराठा-दल में सरदारों की एक राय न होने के कारण, अब्दाली की सेना पर फ़ौरन आक्रमण न हो सका. पहले हमले में तो मराठों को विजय मिला पर विश्वासराव मारा गया. इसके बाद जो भयंकर युद्ध हुआ उसमें सदाशिवराव मारा गया. मराठों का साहस भंग हो गया. पानीपत की पराजय तथा पेशवा की मृत्यु से सारा महाराष्ट्र निराशा के अन्धकार में डूब गया और उत्तरी भारत से मराठों का प्रभुत्व उठ गया.