प्र.23 कबीरदास अथवा मीराबाई का काव्यगत परिचय निम्न बिन्दुओं के आधार पर दीजिए।5
(1) दो रचना (2) भाव पक्ष-कला पक्ष (3) साहित्य में स्थान
दिगिक परिचय निम्न बिन्दुओं के आधार पर
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मीराबाई का जन्म राजस्थान में मेवाड़ के निकट चौकड़ी ग्राम में सन् 1498 ई. के आसपास हुआ था। मेड़ता के नरेश राव दूदा मीरांबाई के दादा थे। वे राव दूदा के छोटे पुत्र रतनसिंह की पुत्री थीं।
मीराबाई के पिता का नाम रत्न सिंह था और मीराबाई का विवाह राणा साँगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। भोजराज की मृत्यु अचानक हो जाने से मीरा का जीवन अस्तव्यस्त हो गया। वैसे तो मीरा बाल्यकाल से श्री कृष्ण की भक्ति में लीन रहती थी पर पति की मृत्यु के बाद तो वे पूरी तरह से साधु-संतों का सत्संग करने लगीं। मंदिरों में कृष्ण मूर्ति के साथ नाचते-गाते हर एक ने उन्हें देखा। इससे परिवार वाले उनसे रुष्ट हो गए।
कहते हैं इसी कारण से ही उनके देवर ने ही मीरा को विषपान को मजबूर किया किन्तु प्रभु कृपा से उन पर केा दुष्प्रभाव नहीं पड़ा। मीरा कृष्ण भक्ति में डूबी रहीं मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न को, गाती रहीं। मीराबाई की मृत्यु सन् 1546 ई. के आसपास मानी जाती है।
मीराबाई का भावपक्ष
मीरा भक्तिकालीन कवयित्री थी। सगुण भक्ति धारा में कृष्ण को आराध्य मानकर इन्होंने कविताएँ की ।
गोपियों के समान मीरा भी कृष्ण को अपना पति मानकर माधुर्य भाव से उनकी उपासना करती रही ।
मीरा के पदों में एक तल्लीनता, सहजता और आत्मसमर्पण का भाव सर्वत्र विद्यमान है।
मीरा ने कुछ पदों में रैदास को गुरू रूप में स्मरण किया है तो कहीं-कहीं तुलसीदास को अपने पुत्रवत स्नेह पात्र बताया है।
मीराबाई का कलापक्ष
मीरा की काव्य भाषा में विविधता दिखला देती है। वे कहीं शुद्ध ब्रजभाषा का प्रयोग करती हैं तो कहीं राजस्थानी बोलियों का सम्मिश्रण कर देती हैं।
मीराबाई को गुजराती कवयित्री माना जाता है क्योंकि उनकी काव्य की भाषा में गुजराती पूर्वी हिन्दी तथा पंजाबी के शब्दों की बहुतायत है पर इनके पदों का प्रभाव पूरे भारतीय साहित्य में दिखला देता है।
इनके पदों में अलंकारों की सहजता और गेयता अद्भुत हैं जो सर्वत्र माधुर्य गुण से ओत-प्रोत हैं।
मीराबाई ने बड़े सहज और सरल शब्दों में अपनी प्रेम पीड़ा को कविता में व्यक्त किया है।
मीराबाई का साहित्य में स्थान
कृष्ण को आराध्य मानकर कविता करने वाली मीराबाई की पदावलियाँ हिन्दी साहित्य के लिए अनमोल हैं। कृष्ण के प्रति मीरा की विरह वेदना सूरदास की गोपियों से कम नहीं है तभी तो सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है कि ‘‘मीराबाई राजपूताने के मरूस्थल की मन्दाकिनी हैं।’’ ‘हेरी मैं तो प्रेम दीवाणी, मेरो दर्द न जाने कोय।’ प्रेम दीवाणी मीरा का दरद हिन्दी में सर्वत्र व्याप्त है।