प्र 6 शासन की ऐसी प्रणाली जहा राज्य का अपना कोई धर्म नही होता, राज्य अपने नागरिकों के धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता तथा उसके सभी नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने की आजादी होती है?
O संसदीय शासन प्रणाली
O सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार
O संघवाद
O धर्मनिरपेक्षत
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Answers
Answer:
एक पंथनिरपेक्ष राज्य पंथनिरपेक्षता की एक अवधारणा है, जिसके तहत एक राज्य या देश स्वयं को धार्मिक मामलों में आधिकारिक तौर पर, न धर्म और न ही अधर्म का समर्थन करते हुए, तटस्थ घोषित करता है।
Answer:
Explanation:
पंथनिरपेक्षता या सेक्युलरवाद (secularism) एक आधुनिक राजनैतिक एवं संविधानी सिद्धान्त है। धर्मनिरपेक्षता के मूलत: दो प्रस्ताव [1] है 1) राज्य के संचालन एवं नीति-निर्धारण में मजहब (रेलिजन) का हस्तक्षेप नही होनी चाहिये। 2) सभी धर्म के लोग कानून, संविधान एवं सरकारी नीति के आगे समान है
धर्मनिरपेक्ष किंवा लौकिक राज्य में ऐसे राज्य की कल्पना की गई हैं, जो सभी धर्मों तथा संप्रदायों का समान आदर करता है। सबको एक समान फलने और फूलने का अवसर प्रदान करता है। राज्य किसी धर्म अथवा संप्रदायविशेष का पक्षपात नहीं करता। वह किसी धर्मविशेष को राज्य का धर्म नहीं घोषित करता। प्राय: विश्व के सभी मुसलिम राज्यों ने अपने आपको इस्लामिक राज्य घोषित किया है। बर्मा ने अपना राजधर्म बौद्धधर्म घोषित किया है।
किसी देश में प्राय: किसी धर्मविशेष के माननेवालों का बहुमत रहता है। हिंदुस्तान में हिंदू, पाकिस्तान में मुसलमान, इसरायल में यहूदी, बर्मा, श्रीलंका, स्याम आदि में बौद्ध बहुसंख्यक हैं। इसी तरह ब्रिटेन, यूरोप उत्तरी और दक्षिण अमरीका, आस्ट्रेलिया आदि में ईसाई धर्म के अनुयायियों का बहुमत है। बहुमत के कारण वहाँ के सांस्कृतिक वातावरण में, वहाँ के धर्म की छाप लगना स्वाभाविक है। किंतु कोई भी राज्य, राज्य के रूप में, किसी धर्मविशेष से अलग रह सकता है। भारत का वर्तमान संविधान तथा लोकतंत्रीय प्रणाली इसके ज्वलंत उदाहरण है।
ब्रिटेन जैसे देश में वहाँ के संविधान के अनुसार राज्य का एक धर्मविशेष से संबंध है। वह ईसाई धर्म के एक संप्रदाय "चर्च ऑव इंग्लैंड से" संबंधित है। फिर भी वहाँ के लोग धर्मनिरपेक्ष भाव से अपना लोकतंत्र तथा शासन चलाते हैं।
सहिष्णुता धर्मनिरपेक्ष राज्य की आधारशिला है। भारत सनातन काल से धार्मिक विषयों में सहनशीलता, उदारता, उदात्त विचार एवं नीति का आश्रय लेता आया है। यह धर्मनिरपेक्ष राज्य का एक पहलू कहा जा सकता है। उसका उसे संपूर्ण रूप नहीं कह सकते। इसके विपरीत सोचने पर देश की राष्ट्रीयता के स्थान पर धर्मविशेष की राष्ट्रीयता, यथा हिंदू राष्ट्रीयता, मुसलिम राष्ट्रीयता, सिख राष्ट्रीयता, किंवा बौद्ध राष्ट्रीयता का विचार करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में भारतीय राष्ट्रीयता, जर्मन राष्ट्रीयता, अमरीकन राष्ट्रीयता केवल नाम मात्र की चीजें रह जाएँगी।
संकीर्ण राष्ट्रीयता पुराने जमाने की बातें हो गई हैं। उनका मेल आधुनिक जगत् से नहीं खाता। वे पिछड़े और पुराने जमाने के नक्शे कहे जाएँगे।
यह धारणा कि धर्मनिरपेक्ष राज्य का सिद्धांत धर्म के विरुद्ध है, गलत है। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य के निवासी धर्म के प्रति उदासीन हो जाएँ, अथवा उसे त्याग दें। उसका सरल अर्थ यह है कि धर्म को दैनिक सामाजिक, राजनीतिक तथा शासकीय जीवनस्तर से पृथक् रखें। धर्म एवं राजनीति को एक में न मिलाकर, उन्हें एक दूसरे का विरोधी न मानकर एक दूसरे का पूरक मानें।
इतिहास
19वीं शताब्दी में होली ओक ने इस प्रसंग में बहुत कुछ लिखा है। वे लौकिक आंदोलन के प्रवर्तक थे। उनकी पुस्तक "ओरिजिन ऐंड नेचर ऑव सिक्युलरिज्म" विश्व के किसी पुस्तकालय में प्राप्य नहीं है। उनकी अन्य पुस्तकें तथ लेख मिलते हैं। उनके आधार पर उनके विचारों के विषय में विनिश्चित किया जा सकता है। ईसाई समाज के एक वर्ग ने उनके सिद्धांतों को धर्मविरोधी माना था। उनकी बहुत सी पुस्तकें असहिष्णुता की वेदी पर धर्मप्राण ईसाइयों द्वारा फूंक दी गई थीं।
उन्होंने सर्वप्रथम सन् 1846 ई. में लौकिक विचारधारा को जगत् के सम्मुख रखा। इसी समय कार्ल मार्क्स ने सन् 1848 ई. के घोषणपत्र निकालकर समाजवादी विचार विश्व को दिया। एक ही काल में, एक ही देशस्थान से दो विचारधाराएँ विश्व के सम्मुख आई। रूस ने समाजवादी विचारधारा का यदि सफल प्रयोग करने का प्रयास किया तो भारत में सेक्युलर सिद्धांत का अभिनव प्रयोग किया जा रहा है।
श्री ओक ने सन् 1860 में कहा था लौकिकवाद न तो धर्मशास्त्र की उपेक्षा करता है और न उसकी स्तुति करता है और न उसे अस्वीकार करता है। जहाँ लौकिककार का अर्थ अर्थशास्त्र के विरोधी अर्थ में किया जाता है वहीं लौकिक शब्द लौकिकवाद से भिन्न अर्थ रखता है।
धर्मनिरपेक्ष राज्य को जो लोग धर्मविरोधी मानते हैं उनका उत्तर देते हुए होली ओक कहता है- "लौकिकता गणितशास्त्र तुल्य ईश्वरवाद तथा अन्य बातों से सर्वथा अलग और मुक्त है। ज्यामिति के अन्वेषक युकिलड ने अपने समय के परमेश्वर तथा तत्संबंधी भावनाओं की उपेक्षा नहीं की। ज्यामिति में भगवान की सत्ता को स्वीकार करना आवश्यक नहीं था। उसने रेखागणित में भगवान की सत्ता का कहीं वर्णन भी नहीं किया है। अतएव ईश्वर संबंधी विचारों पर बिना मत प्रगट किए लौकिकता गणितशास्त्र तुल्य स्वतंत्र "अध्ययन का विषय हो सकती है।"
श्री ओक अंत में इसकी परिभाषा का सार इस प्रकार उपस्थित करते हैं- "मानव की भलाई के लिए मानव प्रयोग द्वारा मानव बुद्धि द्वारा, जो भी बातें संमत हों जिन्हें इस जीवन में किया जा सकता है, जिनका संबंध इस जीवन से है वही लौकिकता है।"