प्र- अवध के किसान आंदोलन के बारे में क्या जानते है।
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1857 के पहले स्वतंत्रता आंदोलन में अवध के किसानों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। आंदोलन के असफल होने के बाद उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। तब उत्तर प्रदेश का अस्तित्व नहीं था। अवध और आगरा नाम के दो सूबे हुआ करते थे। इसमें खासकर अवध के किसानों को अपनी जोत बचाए रखने के लिए अंग्रेज सरकार के साथ तालुकदारों, जमींदारों और कारिंदों के कई-कई पाटों के बीच ‘जीभ बेचारी’ की तरह रहना पड़ता था।
1886 के कुख्यात अवध रेंट ऐक्ट के तहत उन्हें भारी-भरकम लगान तो देना ही पड़ता था, साथ ही ‘नजराना’ भी। जमींदार साहब हाथी या मोटर पर चढ़कर लगान और नजराना वसूलने आ जाते तो ‘हथियाना’ या ‘मोटराना’ अलग से। इसमें जरा-सी चूक होने पर उन्हें अपने घरों और कृषि भूमि से बेदखल कर दिया जाता था।
यह पहले विश्वयुद्ध के बाद का समय था, जब विश्वव्यापी मंदी और महंगाई ने देशवासियों की कमर तोड़ रखी थी। अच्छी बात यह हुई कि किसानों ने जुल्मो-सितम के अंतहीन होने से पहले ही सिर उठा लिया। 1919 के अंत में किसान सभा (जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के किसान संगठन जैसी थी) के बैनर तले सूबे में किसान गतिविधियां शुरू हुईं तो 1920 की गर्मियों तक अनेक गांवों में बाकायदा किसान संगठन खड़े कर दिए गए।