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प्राचीन काल में जब इंटरनेट इजाद नहीं हुआ था, तब लोग कबूतर को संदेशवाहक के रूप में इस्तेमाल करते थे. इसके लिए कबूतरों को विशेष प्रकार की ट्रेनिंग दी जाती थी. कबूतरों की खासियत ये है कि वह कभी भी अपने घर का रास्ता नहीं भूलते. उन्हें कहीं भी छोड़ दो वह अपने घर पहुंच ही जाते हैं. अपने संदेश को एक छोटी सी चिठ्ठी में लिखकर लोग एक नली में रख कबूतर के पैर में बांध देते थे. फिर उसे जरूरी निर्देश देकर रवाना कर दिया जाता था.
प्राचीन काल में जब इंटरनेट इजाद नहीं हुआ था, तब लोग कबूतर को संदेशवाहक के रूप में इस्तेमाल करते थे. इसके लिए कबूतरों को विशेष प्रकार की ट्रेनिंग दी जाती थी. कबूतरों की खासियत ये है कि वह कभी भी अपने घर का रास्ता नहीं भूलते. उन्हें कहीं भी छोड़ दो वह अपने घर पहुंच ही जाते हैं. अपने संदेश को एक छोटी सी चिठ्ठी में लिखकर लोग एक नली में रख कबूतर के पैर में बांध देते थे. फिर उसे जरूरी निर्देश देकर रवाना कर दिया जाता था.कबूतरों के जरिये चिठ्ठी भेजने की इस प्रक्रिया को कबूतर पोस्ट कहते हैं. प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में कबूतरों ने एक संदेश को दूसरी जगह तक पहुंचाने में बहुत ही अहम रोल निभाया था. यही नहीं उनके द्वारा भेजे गए संदेशों के कारण ही दुश्मन सेना के बमों से सैनिकों की एक टुकड़ी को मरने से बचाया जा सका.
प्राचीन काल में जब इंटरनेट इजाद नहीं हुआ था, तब लोग कबूतर को संदेशवाहक के रूप में इस्तेमाल करते थे. इसके लिए कबूतरों को विशेष प्रकार की ट्रेनिंग दी जाती थी. कबूतरों की खासियत ये है कि वह कभी भी अपने घर का रास्ता नहीं भूलते. उन्हें कहीं भी छोड़ दो वह अपने घर पहुंच ही जाते हैं. अपने संदेश को एक छोटी सी चिठ्ठी में लिखकर लोग एक नली में रख कबूतर के पैर में बांध देते थे. फिर उसे जरूरी निर्देश देकर रवाना कर दिया जाता था.कबूतरों के जरिये चिठ्ठी भेजने की इस प्रक्रिया को कबूतर पोस्ट कहते हैं. प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में कबूतरों ने एक संदेश को दूसरी जगह तक पहुंचाने में बहुत ही अहम रोल निभाया था. यही नहीं उनके द्वारा भेजे गए संदेशों के कारण ही दुश्मन सेना के बमों से सैनिकों की एक टुकड़ी को मरने से बचाया जा सका.उनके इस सराहनीय कार्य के लिए दूसरे विश्व युद्ध में 32 कबूतरों को अंग्रेजों ने ‘डिकइन मेडल’ से सम्मानित किया था. ये किसी भी जानवर द्वार अर्जित किया गया अब तक का सबसे बड़ा सम्मान है.
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