प्र०) गांधी जी ने हथकरघा को
आर्थिक आत्मनिर्भरता का प्रतीक
कैसे बताया है ?अपने विचार
80-100 शब्दों में प्रकट कीजिए।
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Answer:
गांवों की आत्मनिर्भरता को बढ़ाने वाले प्रयास सराहनीय ही नहीं जरूरी भी है। जैसे-जैसे खेत छोटे हो रहे हैं, विविधतापूर्ण ग्रामीण अर्थव्यवस्था की जरूरत अधिक महसूस की जा रही है। अत: आस-पास दैनिक जरूरत की जितनी चीजों का उत्पादन गांव में या उसके आसपास हो सके, उतना ही गांव में रोजगार अपने आप बढ़ेंगे व गांववासियों की छिपी हुई रचनात्मकता और प्रतिभा को आगे आने का अवसर मिलेगा। जैसे-जैसे हानिकारक रसायनों का उपयोग बढ़ने से मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन कम होने की समस्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे इन रसायनों पर निर्भरता कम करने की आवश्यकता भी महसूस हो रही है। जैसे-जैसे बीज के पेटेंट का विवाद बढ़ रहा है, वैसे-वैसे किसानों द्वारा अपने परंपरागत बीज बचाने की जरूरत भी स्पष्ट हो रही है। अत: कई तरह से, कई स्तरों पर गांवों की आत्म-निर्भरता की जरूरत बढ़ रही है।
हाल के समय में विश्व के अनेक देशों में जैसे-जैसे ग्रामीण आजीविकाओं को प्रतिकूल दौर से गुजरना पड़ा है, वैसे-वैसे गांधीजी के गांवों की आत्मनिर्भरता बढ़ाने के संदेश का महत्व और स्पष्ट हुआ है। गांधीजी ने अर्थव्यवस्था व आजीविकाओं की मजबूती के लिए गांवों की आत्मनिर्भरता को बहुत महत्व दिया था। कुछ समय के लिए लोगों को लगा कि आधुनिक दुनिया में ऐसी आत्मनिर्भरता का महत्व कम हो गया है, पर कई झटके लगने के बाद अब इस आत्मनिर्भरता के महत्व को नए सिरे से समझा जा रहा है और इसके साथ ही गांधीजी के संदेश की प्रासंगिकता और स्पष्ट हो गई है।
गांवों की आत्मनिर्भरता को बढ़ाने वाले प्रयास सराहनीय ही नहीं जरूरी भी है। जैसे-जैसे खेत छोटे हो रहे हैं, विविधतापूर्ण ग्रामीण अर्थव्यवस्था की जरूरत अधिक महसूस की जा रही है। अत: आस-पास दैनिक जरूरत की जितनी चीजों का उत्पादन गांव में या उसके आसपास हो सके, उतना ही गांव में रोजगार अपने आप बढ़ेंगे व गांववासियों की छिपी हुई रचनात्मकता और प्रतिभा को आगे आने का अवसर मिलेगा। जैसे-जैसे हानिकारक रसायनों का उपयोग बढ़ने से मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन कम होने की समस्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे इन रसायनों पर निर्भरता कम करने की आवश्यकता भी महसूस हो रही है। जैसे-जैसे बीज के पेटेंट का विवाद बढ़ रहा है, वैसे-वैसे किसानों द्वारा अपने परंपरागत बीज बचाने की जरूरत भी स्पष्ट हो रही है। अत: कई तरह से, कई स्तरों पर गांवों की आत्म-निर्भरता की जरूरत बढ़ रही है।
जो भी संगठन गांव की आत्मनिर्भरता बढ़ाने की बात करें वह इस बारे में समग्रता से, बहुपक्षीय स्तर पर प्रयास आरंभ कर सकते हैं या फिर अपने संसाधनों व प्रयास की सीमा को देखते हुए मात्र किसी एक या दो पहलू पर काम कर सकते हैं किन्तु उनकी सोच का समग्र होना जरूरी है। चाहे संस्था एक ही पहलू पर काम करे, पर आत्मनिर्भरता की समग्र सोच उसके पास होनी चाहिए। उस सोच को उसे निरंतर विकसित करना चाहिए व सब गांववासियों के साथ इस विषय पर निरंतर बातचीत होनी चाहिए। यदि यह समग्र सोच गांव में विकसित होती रही तो चाहे एक छोटी शुरूआत से यह कार्य आरंभ हुआ हो, धीरे-धीरे अन्य दरवाजे अपने आप खुलते जाएंगे व तरह-तरह के सार्थक, रचनात्मक प्रयास जुड़ते चले जाएंगे।
सभी गांववासियों को या अधिक से अधिक गांववासियों को साथ लेकर चलने की जरूरत है। कुछ शोषक, सामंती लोग तो शायद ऐसे प्रयास से जुड़ेंगे ही नहीं पर सभी जनसाधारण को किसी भी भेदभाव के बिना इस प्रयास से, इस सोच से जोड़ना चाहिए। हमारे ग्रामीण समाज के विभिन्न समुदायों के पास तरह-तरह की समझ है, अपनी विशिष्ट कुशलताएं हैं जिनका भरपूर लाभ उठाना चाहिए।
महिलाओं को इस प्रयास में जोड़ना बहुत जरूरी है। कृषि, पोषण, दस्तकारी, वन उपज, शिक्षा, स्वास्थ्य सभी में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। यदि महिलाओं की बात पर आरंभ से ध्यान दिया जाता तो गांवों की बाहरी निर्भरता इतनी कभी न बढ़ती। खैर, जो पिछली गलतियां हुईं सो तो हो गईं। अब भविष्य में गांवों की आत्मनिर्भरता को प्राप्त करने में महिलाओं की पूरी भागीदारी चाहिए।
बुजुर्गों की बात पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। जब वर्तमान की गलतियों से कुछ सीखकर हम पुराने विकल्पों की तलाश करेंगे तो हमारी सबसे अधिक मदद बुजुर्ग ही कर सकेंगे। बुजुर्ग पुरुषों व महिलाओं दोनों कीे सहायता लेनी चाहिए। अनेक बुजुर्गों के पास जल संरक्षण, तालाब, खेती, वनस्पति, जैव-विविधता के ज्ञान का भंडार है। पर पिछले कुछ वर्षों से इस परंपरागत ज्ञान की उपेक्षा होने के कारण उन्हें लगता है कि इसकी कोई कद्र ही नहीं रह गई है। न कोई उनसे इस बारे में पूछता है, न वे कुछ कहते है बस उदास से, उपेक्षित से अपने दिन काट रहे है। जब हम उनके पास उनकी जानकारी को पूरा महत्व देते हुए उनकी पूरी बात सुनने जायेंगे तो निश्चय ही उन्हें अच्छा लगेगा और वे विस्तार में, प्यार से पूरी बात समझाऐंगे। हो सकता है वे अपने ज्ञान के साथ कुछ पुरानी दकियानूसी बातों या अंधविश्वासों की बात भी कर बैठें। यह भी हो सकता है कि वे ऐसी कई बातें बताने बैठ जायें जिनमें हमारी विशेष रुचि नहीं है। उस ंिस्थति में हमें धैर्य रखना होगा व धीरे-धीरे छांटकर सार्थक व महत्वपूर्ण ज्ञान उनसे प्राप्त करना होगा। एक बार यह ज्ञान प्राप्त करने के बाद हम उन्हें भूल न जाएं। इसके आधार पर हम जो भी प्रयोग करें या कार्य को आगे बढ़ाएं तो इसकी जानकारी उनको निरन्तर देते रहें। इससे उन्हें भी अच्छा लगेगा और हमें उनकी बहुमूल्य सलाह भी मिलती रहेगी।