Hindi, asked by gauravguptalkt, 6 months ago

प्राकृतिक आपदाएं हमें जीवन में क्या सीख देती है. niband

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Answered by ag5578112
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प्रसाद की रचना कामायनी का प्रमुख पत्र मनु उस विनाश का साक्षी है, जहाँ देवताओं की घोर भौतिकतावादी प्रवृत्ति भोग, विलास और उनके द्वारा प्रकृति के अनियन्त्रित दोहन के परिणामस्वरूप पूरी सभ्यता का विनाश हो जाता है। सिवाय मनु के कोई भी नहीं बचता है। देव सभ्यता के प्रलय के बाद नए जीवन की उधेड़बुन में लगे मनु के जीवन में श्रद्धा और इड़ा नामक दो स्त्रियाँ आती हैं। श्रद्धा मनु को अहिंसक तथा प्रकृति प्रेमी बनाती है, जबकि इड़ा उसे घोर भौतिकतावाद में उलझा देती है और एतमाम लिप्साओं को ही मनु जीवन का उद्देश्य समझने लग जाता है। फिर एक दिन ऐसा आता है, जब उसे अपनी तमाम गलतियों का अहसास होता है और उसके बुरे समय में श्रद्धा उसकी रक्षा करती है। श्रद्धा जो कि अहिंसा, सात्विकता और प्रकृति प्रेम की परिचायक है।

पिछले कुछ दिनों से लगातार जारी भूचाल की घटनाओं से ऐसा लगने लगा है कि प्रकृति का चक्र खुद को दोहरा तो नहीं रहा है। कहीं अपने-आपको सबसे सभ्य कहने का दम्भ भरने वाले मनुष्य के पापों का घड़ा भर तो नहीं गया है। उन देवताओं की तरह जो अपनी नितान्त दोहनवादी प्रवृत्तियों की वजह से समूल नष्ट हो गए। ऐसा नहीं भी है तो कम से कम इसका संकेत जरूर है कि हम सुधर जाएँ।

हमने अपनी इच्छाओं के अनुसार प्रकृति को तोड़ा-मरोड़ा है, चारों तरफ मौजूद हरियाली को हमारे द्वारा बनाई गई विकास की ऊँची चिमनियों ने लगभग खत्म कर दिया है। प्रकृति और इंसान की लड़ाई में प्रकृति ही जीतेगी, यह ऐतिहासिक सत्य है और अभी जितनी भी भयावह घटनाएँ हम देख रहे हैं, वह प्रकृति की जीत भी नहीं बल्कि एक संकेत मात्र हैं आने वाली तमाम भयावह आपदाओं का। अगर सीधे शब्दों में कहें तो अभी यह ट्रेलर मात्र है, विनाश की पूरी फिल्म अभी बाकी है, जिसकी पटकथा हमने ही लिखी है...हिलती धरती ने दिल दहला कर रख दिया और हर धर्म में अपने अनुसार बताई गई विनाश की तमाम मिथकीय कथाएँ सच नजर आने लगीं कि ये दुनिया एक दिन नष्ट हो जाएगी। वो विनाश की तमाम गाथाएँ पता नहीं कितनी सच है और कितनी झूठ, ये बहस का एक अलग मुद्दा है लेकिन कई दिनों से काँप रही धरती और मनुष्य के मन में व्याप्त मृत्यु का भय, बिछी हुई लाशें, टूटते आलिशान बंगलों को देखकर पता नहीं क्यों ऐसा आभास होने लगा कि कहीं प्रकृति के असीमित दोहन के बाद सच में वह समय तो नहीं आ गया, जब ये दुनिया खत्म हो जाएगी। आखिर इन तमाम आपदाओं की दोषी अनियन्त्रित मानवीय इच्छाएँ ही तो हैं, जहाँ हम घर के ऊपर घर बनाते चले जाते हैं, हिमालय की छाती चीरकर सड़कें बना डालते हैं, आलिशान बंगलों के लिए नदियों का रुख मोड़ने तक की हिमाकत कर डालते हैं और फिर ऐसे ही किसी दिन सूनामी, भूकम्प और कोई खतरनाक तूफान आता है और सबकुछ नष्ट हो जाता है।

समय की माँग है कि गाँव में मिट्टी के कच्चे मकानों को ढहा कर बनाई गई आग उगलने वाली ईंट की दीवारों और शहर में कंक्रीट के बड़े महलों की निर्माण प्रक्रिया को पर्यावरण मैत्री बनाया जाए और हम ऐसे हरित भवनों का निर्माण करें जो कि हमारे आन्तरिक और वाह्य दोनों तरह के स्वास्थ्य को सन्तुलित करें। हम अगर मकान न रहे तो जिन्दा रह सकते हैं, जैसा कि इतिहास भी रहा लेकिन अगर पर्यावरण को दांव पर लगाकर आशियाने बनाए तो इंसान के अस्तित्व की कल्पना भी अकल्पनीय लगती है।

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