प्राकृतिक प्रकोप कौन-कौन से है ? बताते
हुए गुजरात में आए भुकंप का वर्णन कीजिए। composition in 250 words
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प्राकृतिक आपदा एक प्राकृतिक जोखिम (natural hazard) का परिणाम है जैसे की ज्वालामुखी विस्फोट (volcanic eruption), भूकंप जो कि मानव गतिविधियों को प्रभावित करता है। मानव दुर्बलताओं को उचित योजना और आपातकालीन प्रबंधन (emergency management) का आभाव और बढ़ा देता है, जिसकी वजह से आर्थिक, मानवीय और पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है। परिणाम स्वरुप होने वाली हानि निर्भर करती है जनसँख्या की आपदा को बढ़ावा देने या विरोध करने की क्षमता पर, अर्थात उनके लचीलेपन पर।[1] ये समझ केंद्रित है इस विचार में: "जब जोखिम और दुर्बलता (vulnerability) का मिलन होता है तब दुर्घटनाएं घटती हैं".[2] जिन इलाकों में दुर्बलताएं निहित न हों वहां पर एक पर भी एक प्राकृतिक आपदा में तब्दील नहीं हो सकता है, उदहारण स्वरुप, निर्जन प्रदेश में एक प्रबल भूकंप का आना-बाना मानव की भागीदारी के घटनाएँ अपने आप जोखिम या आपदा नहीं बनती हैं, इसके फलस्वरूप प्राकृतिक शब्द को विवादित बताया गया है।[3]2001 को प्रातः गुजरात में आए विनाशक भूकंप ने एक बार पुनः हमें इस बात के लिए विवश कर दिया है कि प्राकृतिक आपदाओं से जूझने के लिए हमें नये सिरे से तैयार होना पड़ेगा। प्राकृतिक आपदाओं से जूझने के लिए क्षेत्रीय रणनीतियों के साथ एक स्पष्ट, व्यवहारिक तथा जनमुखी राष्ट्रीय नीति की भी जरूरत है। यह भी देखा जाना है कि परंपरागत ज्ञान को हम किस तरह आधुनिक विज्ञान के साथ जोड़ सकते हैं। यह अत्यंत खेद का विषय है कि पिछले एक दशक में अनेक भूकंप (चार), तूफान (तीन) तथा बाढ़ से जानमाल की अपूर्णीय क्षति हो जाने के बावजूद हम न तो राष्ट्रीय आपदा नीति विकसित कर सके हैं और न ही आम जन को इससे जूझने की क्षमता हेतु प्रेरित कर सके हैं। भूस्खलन, सूखा तथा जंगल की आग उक्त आपदाओं से जुड़ी मानी जाए तो प्राकृतिक आपदा का राष्ट्रीय परिदृश्य बहुत डराने वाला है। इस संबंध में समय-समय पर सामाजिक कार्यकर्ताओं, वैज्ञानिकों आदि से मिले सुझाव कम नहीं है लेकिन उन्हें न तो महत्व दिया गया और न ही इन सुझावों को एक राष्ट्रीय आपदा नीति विकसित करने हेतु प्रयुक्त किया गया। इन सुझावों तथा अनुभवों का अंश भी अगर इस संकट से जुझने हेतु प्रयुक्त किया गया होता तो इन आपदाओं से ध्वस्त समाज को उठने में और अपने को पुनः बसाने में मदद मिलती।
इस दशक में गढ़वाल (1991), लातूर (1993) जबलपुर (1997), चमोली (1999) के बाद गुजरात का भूकंप (2001) सर्वाधिक विनाशक रहा है। बाढ़ की घटनाएँ पिछले दशक में चौगुना बढ़ी हैं तथा इसी क्रम में हिमालय क्षेत्र में भूस्खलन तथा भूकटाव की घटनाएँ भी बढ़ी हैं और आंध्र प्रदेश तथा उड़ीसा के तूफान अगले अनेक सालों तक हमारी स्थिति को गड़बड़ाए रखने वाले हैं।
राष्ट्रीय तथा आंचलिक स्तर पर प्राकृतिक आपदाओं के स्वरूप तथा उसके दुष्प्रभावों की समझ के लिए चिपको आंदोलन के सदस्यों ने देश के अनेक हिस्सों की अध्ययन यात्राएं की हैं ताकि अलग-अलग अंचलों में आई बाढ़, भूकंप, भूस्खलन तथा तूफान की आपदाओं को समग्र तथा सही परिपेक्ष्य में समझा जा सकें। उत्तराखंड, असम, अरुणाचल, लातूर, आंध्र प्रदेश तथा उड़ीसा के क्रम में हम गुजरात के भूकंप प्रभावित क्षेत्रों का अध्ययन करने, राहत में आंशिक हाथ बटाने तथा आगे की व्यवस्था हेतु समाज से विकसित दृष्टि को समझने हेतु गुजरात गए।
वास्तव में 26 जनवरी को हम लोग चमोली जिले के ग्राम बछेर में वन एवं पर्यावरण संवर्धन शिविर में थे। हमें शाम को पता चला कि सुबह के समय गुजरात में प्रलयंकारी भूकंप आया है। शिविर में और लोगों के अलावा डॉ. शेखर पाठक भी आए थे। शिविर में इस त्रासदी में मारे गए लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त की गई। अगले दिन गोपेश्वर आकर गुजरात के परिचित मित्रों से वहां के हाल-चाल मालूम किए तथा उनकी कुशल पूछी। गुजरात की इस त्रासदी को समझने के लिए शेखर पाठक तथा मैं 6 फरवरी 2001 को अहमदाबाद पहुंचे।