India Languages, asked by manasmakkala419, 15 days ago

प्राकृतिक- विपर्ययानां 'नामानि लिखित्वा तेषां दुष्प्रभावानां विषये प्रायोजना कार्यम् ​

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Answered by HEARTLESSBANDI
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एक माँ की तरह हमारा लालन-पालन, मदद, और ध्यान देने के लिये हमें अपने प्रकृति का धन्यवाद करना चाहिये। अगर हम सुबह के समय शांति से बगीचे में बैठे तो हम प्रकृति की मीठी आवाज और खूबसूरती का आनन्द ले सकते है। हमारी कुदरत ढ़ेर सारी प्राकृतिक सुंदरता से सुशोभित है जिसका हम किसी भी समय रस ले सकते l

Answered by Trushti6012
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Answer:

भारत की प्राकृतिक सीमाएँ: इस प्रकार भारत प्रकृत्या चारों और से सुरक्षित है। किन्तु यह नहीं समझना चाहिये कि कठिन अवरोधों के कारण भारत संसार के अन्य देशों से एकदम अलग था। यद्यपि हिमालय जैसी सदृश अभेद्य सीमा, प्रकृति ने किसी भी अन्य देश को प्रदान नहीं की है तथापि उसमें तिब्बत से नेपाल आने के लिये ऐसी सड़के हैं जिनसे हो कर युगों तक संस्कृति और धर्म के शान्तिदूत ही नहीं आते जाते रहे लेकिन कुछ अवसरों पर तो दुर्घर्ष सेनाएँ भी गुज़री हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर पश्चिम के पहाड़ी दर्रें हैं, जो युगों से भारत और बाहर के देशों के बीच यातायात के मार्ग रहे हैं।

हिन्दुकुश के परे अनेक दर्रे हैं। इस पर्वतश्रृंखला के इस ओर से होकर जाने वाला अति प्रचलित मार्ग काबुल घाटी से होकर जाता है और खैबर दर्रे से होता हुआ पेशावर में पहुँचता है। यह एक टेढ़ा–मेढ़ा और तंग २० मील लम्बा रास्ता है। दूसरा सुप्रसिद्ध मार्ग हेरात से कंधार तक आता है, फिर बोलन दर्रे से होकर सिन्धु घाटी में निकलता है। पश्चिम से एक अन्य मार्ग मकरान के दुर्गम तट से निकलता है। इन मार्गों से भारत पर अनेक ऐसे आक्रमण हुए हैं। तथापि आज से करीब तीन हज़ार साल पहले जब आर्य हिंदुकुश पारकर भारत में आये, तब से अब तक औपनिवेशिकों, व्यापारियों और विजेता शत्रुओं के असंख्य समूह इन दर्रों से आये और गये। उत्तर–पूर्वी श्रृंखला में उल्लेखनीय दरार वह है जिससे ब्रह्मपुत्र भारत में प्रवेश करता है। उनसे दक्षिण की पहाड़ियाँ घने जंगलों से ढकी हैं और उन्हे पार करना कठिन है तथापि व्यापारी,धर्मदूत और शत्रु भी उनसे गुज़रे हैं। प्राकृतिक सीमाओं ने शेष एशिया से भारत को पृथक कर यहाँ के निवासियों को अपना एक निश्चित निजत्व प्रदान किया तथापि उनके कारण भारत शेष संसार से अलग न था।

क्षेत्रफल: इन सीमाओं के भीतर भारत का क्षेत्रफल लगभग डेढ़ लाख वर्गमील है, जो रूस को छोड़कर सारे यूरोप के बराबर है। इसके तट की लम्बाई ३००० मील से अधिक तथा उसके पर्वतीय अवरोधों की लम्बाई उसकी आधी है। उसकी जनसंख्या लगभग ५० करोड़ से अधिक है।

देश के प्राकृतिक स्वरूप में काफ़ी भिन्नतायें पायी जाती हैं। यहाँ ऊँची से ऊँची दुर्गम पर्वत–चोटियाँ हैं — संसार की सब से ऊँची चोटी यहीं है,तो निम्न जलोढ़ मैदान भी हैं और ऊँचे पठार,गहन कांतार,एकान्त घाटियाँ और सूखे रेगिस्तान हैं। एक ओर अत्यन्त गर्म मैदान हैं तो अत्यंत ठंडे पर्वतीय आश्रय भी हैं। प्राकृतिक विशेषताओं की इन भिन्नताओं की तुलना जाति,धर्म और भाषा की भिन्नताओं से ही हो सकती है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि अकेले भारत में इन विशेषताओं के जितने प्रकार हैं उतने समूचे यूरोप में भी नहीं हैं। इस प्रकार भारत को उस अर्थ में एक देश नहीं कह सकते — उसे एक महाद्वीप और उसके विभिन्न प्रान्तों को अलग–अलग देश मानना अधिक तर्कसंगत होगा। इधर कुछ दिनों से भारत के लिये उपप्रायद्वीप शब्द का जो प्रयोग होने लगा है वह एक अच्छा नामकरण है और भारत के इतिहास के अध्ययन में इस बात को ध्यान में रखना लाभकर होगा। उदाहरणत: भारतीय इतिहास में उस एकता को खोजना अनुचित होगा जो फ़्रांस अथवा इटली जैसे देशों के इतिहास में पाई जाती है। उसी प्रकार की एकता मगध, गौड़, कौशल, शूरसेन (मथुरा), अवन्ति और कर्णांट सदृश राज्यों में ही पाई जा सकती है, जिनका प्रत्येक क्षेत्रफल एवं जनसंख्या अनेक यूरोपीय देशों के बराबर हैं।

आधुनिक विज्ञान के अविष्कारों के कारण देश और काल का भेद मिटा नहीं था। इतिहास पर भौतिक परिस्थितियों का प्रभाव किस प्रकार पड़ता है,इसका स्पष्टीकरण एक उदाहरण से ही हो जाएगा। आज दक्षिण भारत में होने वाले किसी दंगे की सूचना दिल्ली स्थित सरकार के पास दो सेकण्ड से कम समय में पहुँच जायेगी और तीन दिनों के भीतर पर्याप्त सेना भी वहाँ पहुँचाई जा सकती है। किन्तु यदि वही उपद्रव अशोक के समय में हुआ होता तो उसकी सूचना पाटलिपुत्र में तीन मास से कम समय में न पहुँच पाती और कम से कम उसका दूना समय आवश्यक सेना भेजने में भी लगता।

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