प्रेमी ढूंढत मैं फिरौ प्रेमी ना मिले कोई प्रेमी को प्रेमी मिले सबवे अमृत हुई इसका भावार्थ
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प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइप्रेमी कौं प्रेमीमिलै, सब विष अमृत होइ।
भावार्थ - इस दोहे में कबीर दास जी जी यह कहना चाहते हैं कि वह जब सच्चे ईश्वर प्रेमी को ढूंढते फिर रहे हैं पर ऐसा प्रेमीउन्हें कोई मिल नहीं रहा है।
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