प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ
प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ। 21
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प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ
प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइप्रेमी कौं प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ।
भावार्थ - इस दोहे में कबीर दास जी जी यह कहना चाहते हैं कि वह जब सच्चे ईश्वर प्रेमी को ढूंढते फिर रहे हैं पर ऐसा प्रेमी उन्हें कोई मिल नहीं रहा है। ऐसा प्रेमी तब तक नहीं मिलता जब तक ढूंढने वाला भी सच्चा प्रेमी ना हो (ईश्वर का भक्त )दूसरी पंक्ति में उन्होंने यह दर्शाया है कि जो ईश्वर का सच्चा प्रेमी है उसे ही प्रेमी मिलता है और जब ऐसा होता है मन की सारी बुराइयों का विश्व अच्छाइयों में अमृत बन जाता है।
कबीर दास जी का जीवन परिचय -
कबीर दास जी का जन्म १३९८ ई. में वाराणसी में हुआ और उनकी मृत्यु १५१८ ई. मगर में हुई। कबीर दास जी पढ़े-लिखे नहीं थे परंतु उनके पास सामाजिक ज्ञान बहुत था। उन्होंने अपने साहित्यिक रचनाओं में दोहे चौपाई और पद का प्रयोग किया हैं।
उनकी रचनाएं राजस्थानी और पंजाबी मिश्रित हिंदी में है। उन्होंने अपनी रचनाओं में "रमैनी" और "सबद" की भाषा का प्रयोग किया है जो कि हिंदी के निकट।
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