प्रेमचंद के फटे जूते में नेम धर्म का क्या अर्थ है
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फोटो ही खिचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते, या न खिचाते. फोटो न खिचाने से क्या बिगड़ता था. शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम, ‘अच्छा, चल भई’ कहकर बैठ गए होंगे. मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फोटो खिचाने को भी जूता न हो. मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूं, मगर तुम्हारी आंखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है.
तुम फोटो का महत्व नहीं समझते. समझते होते, तो किसी से फोटो खिचाने के लिए जूते मांग लेते. लोग तो मांगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं. और मांगे की मोटर से बारात निकालते हैं. फोटो खिचाने के लिए तो बीवी तक मांग ली जाती है, तुमसे जूते ही मांगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते. लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिचाते हैं जिससे फोटो में खुशबू आ जाए! गंदे-से-गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है!
टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस जमाने में भी पांच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे. जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है. अब तो जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियां न्योछावर होती हैं. तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे. यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है, जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूं. तुम महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है!
मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है. यों उपर से अच्छा दिखता है. अंगुली बाहर नहीं निकलती, पर अंगूठे के नीचे तला फट गया है. अंगूठा जमीन से घिसता है और पैनी मिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है. पूरा तला गिर जायेगा, पूरा पंजा छिल जायेगा, मगर अंगुली बाहर नहीं दिखेगी. तुम्हारी अंगुली दिखती है, पर पांव सुरक्षित है. मेरी अंगुली ढंकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है. तुम पर्दे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम पर्दे पर कुर्बान हो रहे हैं!
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लेखक ने यहाँ 'नेम-धरम' की जंजीर का उल्लेख किया है। इसका आशय है-नियम और धर्म के अनुसार जीवन जीना फिर चाहे उसके लिए अपना सर्वस्व लुट जाए।
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