प्रेमचंद की कहानियों के वर्तमान में प्रासंगिकता सहायक पुस्तकें
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प्रेमचंद को पढ़ना उन चुनौतियों को प्रत्यक्ष अनुभूत करना है, जिन्हें भारतीय समाज बीते काफी समय से झेलता आया है और आज भी उन चूनौतियों का हल नहीं ढूँढ पाया है। दलित, स्त्री, मजदूर, किसान, ऋणग्रस्तता, रिश्वतखोरी, विधवाएँ, बेमेल विवाह, धार्मिक पाखण्ड, मानव मूल्यों की दरकन, जेनरेशन गैप, ग्रामीण जीवन की सहजता के मुकाबले नगरीय जीवन की स्वार्थ लोलुपता आदि ऐसे ही यक्षप्रश्न हैं। आज प्रेमचंद को गए पूरे तिरासी वर्ष बीत गए हैं, लेकिन उनके द्वारा साहित्य में वर्णित चुनौतियाँ इक्कीसवीं सदी में अपना चोला बदलकर और अधिक गम्भीर चुनौतियों के साथ हमसे रूबरू हैं। उदाहरण के लिए – गोदान के गोबर और पण्डित मातादीन आज भी आपको गाँवों में घूमते मिल जाएंगे। यदि हम उनकी अमर कहानी कफन को ध्यानपूर्वक देखें तो पाए्रगे कि यह कथा मात्र घीसू-माधव की काहिलता को ही बयान नहीं करती, अपितु इसमें स्त्री शोषण, पेट की आग शान्त करने के लिए आदमी का रिश्तों को तार-तार कर देना तथा गरीब का दुख में भी सुख की खोज करने का प्रयत्न जैसे आयाम स्वतः ही देखे जा सकते हैं। इसी प्रकार मंत्र कहानी में डाॅक्टर साहब की संवेदनहीनता और बूढ़े अपढ़ ग्रामीण की निश्छल परोपकारिता सहज ही मन को रससिक्त कर देती र्है।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंत में प्रेमचंद की वाकई हमें ज़रूरत है? ऐसे ही प्रश्न गाँधीजी की प्रासंगिकता को लेकर भी अक्सर उठाए जाते रहे हैं। कुछ साल पहले वयोवृद्ध गाँधीवादी अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार और जनलोकपाल के मुद्दे पर गाँधी जी के सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए पूरे देश को आन्दोलित कर दिया और वे रातों-रात हमारे युवाओं के रोल माॅडल बन गए। जगह -जगह पिकेट (मंत्रियों-सांसदों के घरों पर धरना प्रदर्शन) करने का उनका गाँधीवादी रास्ता प्रेमचंद अपनी रचनाओं के माध्यम से हमें दिखाते हैं, लेकिन आज कुछ लोग प्रेमचंद की प्रासंगिकता को सवालों के घेरे में खड़ा करने लगे हैं और उन पर तथा उनकी रचनाओं पर मिथ्या दोषारोपण करने लगे हैं।
प्रेमचंद को समझने के लिए हमें देश के सामाजिक तन्तुओं की जटिलता का अवलोकन करना होगा, जिनके आसपास से उन्होंने अपनी कहानियाँ बुनी हैं। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के लगभग बीत जाने के बावजूद ये जटिलताएँँ कम नहीं हुई है, बल्कि इनमें हो रहे उभार का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। प्रेमचंद सन् 1910 से 1936 के बीच के अपने रचनाकाल में भारतीय समाज में किसानी को दोयम दर्जे का काम समझे जाने को रेखांकित कर रहे थे और मजदूरी को उससे बेहतर समझे जाने की मानसिकता दिखा रहे थे । पूस की रात का हल्कू तथा गोदान का गोबर इसी मानसिकता में डूब-उतरा रहे थे। क्या आज भी गोबर जैसे युवा नहीं हैं, जो किसानी को हेय समझते हुए घर-बार, गाँव जवार यहाँ तक कि अपना देस तक छोड़कर मोटे पैकेज के लालच में फ़ैक्ट्री (इक्कीसवीं सदी में इसे बहुराष्ट्रीय कम्पनी पढ़ें) में काम करना नहीं पसंद कर रहे हैं? क्या आज भी युवाओं का इन तथाकथित फ़ैक्ट्रियों में शोषण नहीं हो रहा है? क्रेडिट कार्ड और प्लास्टिक मनी के इस युग में गबन का नायक अपनी पत्नी जालपा के मोह में पड़़कर आज भी ऋण जाल में फँसने को अभिशप्त है। ‘महाजनी सभ्यता‘ निबन्ध में भी वे इस ओर बार-बार संकेत करते हैं। मंत्र के स्वार्थी और संवेदनहीन डाॅक्टर साहब आपको हर गली कूचे में मिल जाएंगे। आज भी दलित ‘सद्गति‘ के लिए अभिशप्त हैं और आज दलित कितने ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो गए हों, ‘ठाकुर का कुँआ‘ आज भी उनके लिए ‘मृगतृष्णा‘ ही है। आज जिस प्रकार विदर्भ और बुंदेलखण्ड के किसान आत्महत्या करने को विवश हैं, उसकी बानगी वे ‘बलिदान’ कहानी में दे चुके थे। उस समय भूमाफिया आज की भाँति सशक्त भले न रहा हो, लेकिन इस कहानी के तुलसी और मंगल आज के भूमाफियाओं का स्मरण कराने के लिए पर्याप्त हैं।