Hindi, asked by siddhi2312, 8 months ago

प्र.५. निर्देश के अनुसार लिखिए

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Answered by viratsheoran
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व्यक्तिविशेष के चित्त में किसी प्रकार की अभीप्सित प्रतिक्रिया अथवा भावना को प्रत्यक्ष रीति से जगाने के लिए वैचारिक संप्रेषण निर्देश है। "आदेश' का पालन अनिच्छापूर्वक भी हो सकता है किंतु निर्देश का स्वेच्छया पालन होता है। परामर्श, सलाह, संमति (लगभग-ऐडवाइस, कौंसेल, कमेंडेशन) आदि से अधिक तीव्र तथा दृष्टिदाता शब्द "निर्देश' है। "सजेशन' सामान्य सुझाव के अर्थ में भी अपने समानार्थकों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली एवं कार्यप्रेरक है। "इंगिति' (हिंट) सुझाव का ही संक्षिप्त रूप बताया गया है। समाजशास्त्री टार्ड (Tarde) ने "अनुकरण' की व्यापक अर्थमीमांसा में "निर्देश' को लिया है।

निर्देश की क्रिया में निर्देशदाता (सजेस्टर) के उच्चरित शब्दों का महत्व होता है। निर्देशप्राप्त व्यक्ति की इच्छाशक्ति इस प्रबलतर मन:शक्ति के संमुख आत्मसमर्पण कर देती है। निर्देश हमारे आचरण एवं विश्वास को प्रभावित करनेवाली बुद्धि की विशेष क्षमता का ही दूसरा नाम है। इसमें किसी सीधी आज्ञा की आवश्यकता ही नहीं पड़ती और कार्य अथवा विश्वास पर इच्छित प्रभाव पड़ जाता है। सर्वप्रथम कुछ प्रेरक तत्व (स्टिम्यूलाई) "निर्देश्य' व्यक्ति के संमुख उपस्थित किए जाते हैं। ये प्रेरक (चाहे वे विचाररूप में हों अथवा वस्तुरूप में अथवा दोनों के ही मिले जुले रूप में) व्यक्ति की किसी अंतर्निहित प्रवृत्ति का उकसाकर बाहर लाते और उसे एक रूप देते हैं। अनुकूल प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होने पर उनमें आवश्यक परिवर्धन भी करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में व्यक्ति किसी भी प्रकार के ऊहापोह अथवा असमंजस में नहीं पड़ता। ऐसी किसी भी प्रक्रिया को, जिसमें व्यक्ति बिना किसी आगापीछा या विवेकपूर्ण निर्णय के, मानसिक रूप से ही नहीं बल्कि अपनी समग्र चेतना एवं कायिक व्यापारों के साथ, पूर्वार्जित सभी धाराणाआें को नकारता हुआ निर्दिष्ट कार्य को पूरा करने के लिए तत्पर होता है, निर्देश की कोटि में रखा जा सकता है।

सामान्यत: निर्देश की क्रिया में एक निर्देशदाता तथा एक निर्देशग्राही (सजेस्टिबुल) की आवश्यकता समझी जाती है। एमिल कूए (Emil Coue 1857-1926) ने अपने आत्मनिर्देश (आटोसजेशन) सिद्धांत द्वारा यह पुष्ट किया कि सभी परनिर्देश (हैटरोसजेशन) समझे जानेवाले निर्देश, आत्मनिर्देश के ही रूप होते हैं क्योंकि दूसरों के आरोपित विचार ग्रहण कर लेने के बाद व्यक्ति अपना निर्देशदाता स्वयं बन जाता है (यथा, "मैं आज चार बजे अवश्य उठ जाऊँगा', "मैं बिलकुल भयभीत नहीं हूँ;' आध्यात्मिक स्तर पर- "मैं सच्चिदानंद स्वरूप हूं' "सौ ऽ हं' इत्यादि)। प्रत्यक्ष परनिर्देश में भी यही प्रक्रिया समानांतर रूप में चलती है।

निर्देशग्राहिता सभी व्यक्तियों में समान नहीं होती। व्यक्ति की मानसिक रचना, कायिक गठन, स्नायवीय अंतर्गठन आदि व्यक्ति को इस ग्रहणशीलता के प्रति सापेक्ष रूप से अभिमुख अथवा परांं‌मुख करते हैं। ग्रहणशीलता स्थायी, अस्थायी, अथवा बिलकुल तात्कालिक भी होती है। (१) प्रेरणास्पद पुस्तक अथवा योग्य पुरुष के उपदेश द्वारा निर्देश ग्रहण कर व्यक्ति अपने में स्थायी परिवर्तन ला सकता है। (२) आकस्मिक परिस्थिति का सामना करने के लिए आत्मनिर्देश द्वारा व्यक्ति कुछ विशिष्ट गुणों का विकास अस्थायी तौर पर अपने में कर लेता है। (३) औषधि, मादक द्रव्य आदि के प्रभाव से निर्देश के लिए तात्कालिक ग्रहणशीलता भी आ जाती है। (उदा. लोग भेद की बात जानने के लिए संदिग्ध व्यक्ति को मद्य पिलाकर विवश करते हैं)। (आनंदभैरव शाही)

निर्देशग्राहिता (सजेस्टिबिलिटी) की मात्रात्मक भिन्नता केवल व्यक्तिसापेक्ष नहीं बल्कि स्वत: निर्देश की तात्कालिकता (रिसेंसी) उसके बारंबार दिए जाने (्फ्रक्वेंसी) तथा जीवंत होने (लाइवलीनेस) आदि तथ्यों पर भी निर्भर मानी जा सकती है। तथापि कभी कभी निर्देश की ताकत नहीं चल पाती। व्यक्ति की आंतरिक दृढ़ता के अतिरिक्त सहजवृत्ति (इंस्टिक्टं) की त्व्रीाता भी इसे नाकाम कर देती है। काममनोविज्ञान के विद्वान्‌ हैवलाक एलिस का कथन है, "निर्देश का बीज वहीं पनप सकता है जहाँ उसके लिए उपयुक्त भूमि हो।'

निर्देश अपने विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में "संमोहन' (हिप्नाटिज्म) आंदोलन के संदर्भ में लिया जाने लगा। १९वीं सदी के आरंभ में डाक्टर मेस्मर रोगियों की चिकित्सा उनपर हाथ फेरकर, प्रगाढ़ निद्रा में सुलाकर करते थे। वे निद्रावस्था में विचार-संप्रेषण (रेपर्ट) द्वारा उसे स्वाथ्य की और लौटने का निर्देश देते थे। उनके कथानुसार संमोहक में, विशेषत: उसकी उँगलियों के पोरों से निकलनेवाले ओजस्‌ (ऑरा) में, एक "प्राणिज चुंबकीयता' (एनिमल मैग्नेटिज्म) होती है। आधिकाधिक रूप से मेस्मर को असिद्ध ठहराते हुए अलग्जांद्रवर्त्रांद (पेरिस, १८२३) ने प्राणिज चुंबकीयता को संदिग्ध अथवा अपवादात्मक बताते हुए हुए उसे निर्देश की ही विशेष अवस्था माना। इंग्लैंड के जेम्स ब्रेड ने उन्हीं दिनों "हिप्नाटिज्म' को प्रतिष्ठित करते हुए व्यक्ति के भीतर की स्नायविकता (न्यूरोहिप्नालाजी) को उसका कारण बताया। शारको ने १९वीं सदी के आठवें दशक में साल्पेत्रिएर (Salpetriere) अस्पताल में मुख्यत: हिस्टीरिया की चिकित्सा में संमोहन का प्रयोग करते हुए इसे एक असामान्य मानसिक अवस्था बतलाया। नैन्सी के बर्नहीम (१८४०-१९०९) तथा लीबोल ने सर्वप्रथम निर्देश को ही मुख्य तत्व माना। बर्नहीम ही निर्देश की प्रतिष्ठा का पहला उद्घोषक था

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