History, asked by 918819819604, 2 months ago

पौराणिक हिंदू धर्म के उदय के कारणों को स्पष्ट कीजिए​

Answers

Answered by islamjaha949
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Answer:

इस धर्म को वेदकाल से भी पूर्व का माना जाता है, क्योंकि वैदिक काल और वेदों की रचना का काल अलग-अलग माना जाता है। यहां शताब्दियों से मौखिक (तु वेदस्य मुखं) परंपरा चलती रही, जिसके द्वारा इसका इतिहास व ग्रन्थ आगे बढ़ते रहे। ... वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई।

Answered by Anonymous
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Answer:

जब हिन्दू धर्म का नाम आता है तो लोगों का ध्यान मन्दिर पाठ, पूजा और मान्यताओं की तरफ चला जाता हैं जैसे टीका लगाने चोटी रखने और मंदिर जाने वाला ही हिन्दू होता हैं, यह हिंदुत्व की विशेषताएं नहीं हैं बल्कि यह धर्म का छोटा सा हिस्सा हैं जिसमें देवी देवता और मान्यताएं आती हैं. यहाँ धर्म का अर्थ भी स्पष्ट किया गया हैं धर्म इति धार्यते यानी जिसे धारण (आचरण/व्यवहार) में लाया जा सके वही धर्म हैं.

Explanation:

पौराणिक हिन्दू धर्म में दो परम्पराएं शामिल थी- वैष्णव और शैव. वैष्णव परम्परा में विष्णु को सबसे महत्वपूर्ण देवता माना जाता हैं और शैव परम्परा में शैव यानी शिव ही परमेश्वर हैं. इस प्रकार की आराधना में उपासना और ईश्वर के बीच का संबंध प्रेम और समर्पण का सम्बन्ध माना जाता हैं जिसे हम भक्ति कहते हैं. अब मुख्य हिन्दू धर्म की विशेषता जानते हैं.

पौराणिक हिन्दू धर्म का उदय : -- पौराणिक हिन्दू धर्म में भी मुक्तिदाता की कल्पना विकसित हो रही थी. इस पौराणिक हिन्दू धर्म में दो परम्पराएँ प्रमुख थी, पहली वैष्णववाद और दूसरी शैववाद. वैष्णववाद में विष्णु को सबसे प्रमुख देवता माना गया हैं. और शैववाद में शिव परमेश्वर माने गये हैं. इन परम्पराओं के अंतर्गत एक विशेष देवता की पूजा को विशेष महत्व दिया जाता था. इस प्रकार आराधना में उपासना और ईश्वर की भक्ति के बीच का सम्बन्ध प्रेम और समर्पण का माना जाता था जिसे भक्ति कहा जाता हैं.

अवतारवाद (Avatarism) : --- यह पौराणिक हिन्दू धर्म की दूसरी मुख्य विशेषता हैं. वैष्णववाद में कई अवतारों के चारों ओर पूजा पद्धतियाँ विकसित हुई. इस परम्परा के अंदर दस अवतारों की कल्पना की गई हैं. लोगों में यह मान्यता भी प्रचलित थी कि पापियों के बढ़ते प्रभाव के कारण जब संसार में अराजकता, अव्यवस्था और विनाश की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी, तब संसार की रक्षा के लिए भगवान अलग अलग रूपों में अवतार लेते थे.

संभवतः अलग अलग अवतार भारत के भिन्न भिन्न भागों में लोकप्रिय थे. इन सभी स्थानीय देवताओं को विष्णु का रूप मान लिया गया जो एकीकृत धार्मिक परम्परा के निर्माण का एक महत्वपूर्ण तरीका था.

अवतारों को मूर्तियों में दिखाना (Show avatars statues) : कई अवतारों को मूर्तियों के रूप में दिखाया गया हैं. अन्य देवताओं की मूर्तियों का भी निर्माण किया गया. शिव को उनके प्रतीक लिंग के रूप में बनाया जाता था. परन्तु उन्हें कई बार मनुष्य के रूप में भी दर्शाया गया हैं.

ये समस्त चित्रण देवताओं से सम्बन्धित मिश्रित अवधारणाओं पर आधारित थे. उनकी विशेषताओं और प्रतीकों को उनके शिरो वस्त्र, आभूषण, आयुधों (हथियार और हाथ में धारण किये गये अन्य शुभ अस्त्र) और बैठने की शैली से दर्शाया जाता था.

पुराणों की कहानियाँ (hindu mythological stories) : - इन मूर्तियों के उत्कीर्णन का अर्थ समझने के लिए इतिहासकारों को इससे जुडी कहानियों से परिचित होना पड़ता हैं. कई कहानियां प्रथम सहस्त्रशताब्दी के मध्य से ब्राह्मणों द्वारा रचित पुराणों में पाई जाती हैं. जिनमें देवी देवताओं की कहानियाँ भी हैं.

प्रायः इन्हें संस्कृत श्लोकों में लिखा जाता था. इन्हें ऊँची आवाज में पढ़ा जाता था. जिसे कोई भी सुन सकता थायदपि महिलाओं और शूद्रों को वैदिक साहित्य पढ़ने सुनने की अनुमति नहीं थी. परन्तु वे पुराणों को सुन सकते थे.

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