Geography, asked by saurabhbhadane342, 10 months ago

पारंपरिक साधनांचा अति वापर व पर्यावरण संबंध निष्कर्ष​

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Answered by sachinchumble
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Explanation:

/देहरादून। प्राकृतिक संसाधनों को मानवाधिकार तो दे दिए गए हैं, लेकिन उनके अधिकारों की रक्षा को लेकर संशय बरकरार है। प्रदूषण की भयावहता और उससे पर्यावरण को होने वाले नुकसान पर चर्चाएँ सुनते-सुनते कई दशक बीत गए।

इस दौरान गंगा-यमुना की सफाई के नाम पर न जाने कितना धन पानी की तरह बहा दिया गया। सरकारें पर्यावरण को बचाने की कसमें खाती रही, लेकिन धरातल पर कुछ भी देखने को नहीं मिला। अब पर्यावरण को बचाने के लिये असली कदम अदालत ने उठाया है। ऐसा कदम जिससे सचमुच नदियों, जंगलों, ग्लेशियरों समेत धरती को वास्तव में बचाने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।

नैनीताल हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए 21 मार्च को जस्टिस राजीव शर्मा और जस्टिस आलोक सिंह की संयुक्त खण्डपीठ ने गंगा-यमुना समेत तमाम छोटी और सहायक नदियों को जीवित मनुष्य का दर्जा दे दिया। इससे पहले की यह फैसला लोगों की समझ में आता, करीब एक हफ्ते के अन्तराल पर अदालत ने गंगोत्री-यमुनोत्री ग्लेशियर के साथ ही जंगल, झील, झरने, हवा, चारागाह जैसे तमाम प्राकृतिक संसाधनों को भी मनुष्य का दर्जा दे दिया। अदालत ने अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए कहा कि इन सभी को आम लोगों की तरह मूलभूत और कानूनी अधिकार, कर्तव्य, देनदारियाँ हासिल होंगी।

इसका अर्थ क्या हुआ?

इस मामले में याचिकाकर्ता के वकील एमसी पन्त के मुताबिक इस फैसले के बाद अब नदियों, ग्लेशियरों या जंगलों आदि को नुकसान पहुँचाने पर मुकदमा चलाया जा सकता है। अब यदि कोई जंगल में पेड़ काटे या आग लगा दे तो उस पर हत्या तक का मुकदमा दर्ज कराया जा सकता है।

इसी तरह नदी में कचरा फेंकना किसी व्यक्ति पर कचरा फेंकने जैसा माना जाएगा और सम्बन्धित व्यक्ति पर आपराधिक मामला दर्ज हो सकता है। पन्त के मुताबिक नदियाँ अब जीवित मनुष्य हैं, नदियों का बहाव ही उनकी जीवन्तता है, यदि नदियों के बहाव को बाँधा जाता है तो अब यह भी एक अपराध होगा। नदियों के बहाव को बाँधने वाले बड़े-बड़े बाँधों पर भी अब मुकद्मे दर्ज करवाए जा सकते हैं। देहरादून वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी में लूवियल हाइड्रोलॉजी (नदी के बहाव से सम्बन्धित) पर काम कर रहे वैज्ञानिक संतोष राय अदालत के फैसले का स्वागत करते हुए कहते हैं कि नदियों का प्राकृतिक बहाव बना रहे तो वे मैली भी नहीं होंगी। मानसून में बारिश का पानी नदियों को प्राकृतिक तौर पर साफ कर देता है और सारी गन्दगी बहा देता है।

राय के मुताबिक इस फैसले के बाद बाँधों को भी न्यूनतम पानी छोड़ने का क्लॉज पूरा करना होगा, क्योंकि अमूमन बाँध तय मात्रा से कम पानी नदी में छोड़ते हैं। अदालत के इस फैसले के बाद बाँधों पर निगरानी और सन्तुलन बढ़ाया जा सकता है और उम्मीद की जा सकती है कि अब बड़े बाँधों को अनुमति न मिले।

नैनीताल हाईकोर्ट ने अपने फैसले में गंगोत्री और यमुनोत्री ग्लेशियर का खासतौर पर जिक्र किया है। गंगोत्री हिमालय के सबसे बड़े ग्लेशियर में से एक है और पिछले 25 वर्षों से यह तेजी से घट रहा है। गंगोत्री ग्लेशियर करीब 850 मीटर तक घट चुका है।

यमुनोत्री ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहा है। पहाड़ों में बन रही सड़कों, हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट आदि के लिये विस्फोट किए जाते हैं, जिससे पूरी पर्वत श्रृंखला हिल जाती है। इसके साथ ही गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ समेत तमाम संवेदनशील जगहों पर बड़ी संख्या में पर्यटकों के आने से भी नुकसान हो रहा है।

वाडिया इंस्टीट्यूट में ग्लेशियर पर काम कर रहे वैज्ञानिक समीर तिवारी बताते हैं कि धरती पर 97 फीसदी खारा पानी है। पीने योग्य ताजा पानी सिर्फ तीन फीसदी ही है, उसमें भी 2-2.7 फीसदी तक फ्रोजेन वाटर यानी ग्लेशियर में जमा पानी है। मनुष्य की वजह से ग्लेशियर को अगर एक फीसदी भी नुकसान पहुँचता है तो यह बड़ा नुकसान है। तिवारी के अनुसार ग्लेशियर के आस-पास ऐसे कई कारक हैं जो उसे नुकसान पहुँचा रहे हैं।

वायु प्रदूषण, पर्यटन, ग्लेशियर पर क्लाइम्बिंग, फॉसिल फ्यूल बर्निंग यानि जीवाश्म ईंधन का जलना, केदारनाथ जैसे संवेदनशील क्षेत्र में हेलिकॉप्टर से आवाजाही इन कारकों में शामिल हैं, जिनका अध्ययन किया जा सकता है। अदालत के आदेश के मुताबिक अब यदि वैज्ञानिक समुदाय यह कह दे कि जीवाश्म ईंधन से ग्लेशियर को नुकसान पहुँच रहा है तो इसे रोकना होगा। ग्लेशियर ही गंगा, यमुना, सिंधु, ब्रह्मपुत्र जैसी अधिकांश नदियों का मुख्य स्रोत हैं। ग्लेशियर नहीं रहेंगे तो ये नदियाँ बरसाती रह जाएँगी। ग्लेशियर अब मनुष्य हैं इसलिये इनके अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए।

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