प्र.३ टीपा लिहा.
१. प्रार्थना समाज
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प्रार्थना समाज की पृष्ठभूमि 19वीं शताब्दी के प्रारंभ अथवा उससे भी पहले 18वीं शताब्दी में हुई कई घटनाओं से बन चुकी थी। अंग्रेजी शिक्षा का प्रवेश और ईसाई मिशनरियों के कार्य, ये दो घटनाएँ उस पृष्ठभूमि के निर्माण में विशेष सहायक बने। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से शिक्षित भारतीयों में अपने सामाजिक और आर्थिक विश्वासों तथा रीति रिवाजों के दोषों और त्रुटियों के प्रति चेतना जगी। ईसाई मिशनरियों ने अनेकानेक लोग जिनमें विशेष रूप से हिंदुओं का धर्मपरिवर्तन करके उन्हें ईसाई बना लिया। इससे भी लोगों की आँखें खुल गईं। फिर मिशनरियों ने अपनी कठोर प्रहारी आलोचना द्वारा भी धर्मपरिवर्तन के अनिच्छुक लोगों के विचारों में बड़ा परिवर्तन ला दिया। हिंदू दर्शन के उन नेताओं ने जो इन तत्वों के प्रभाव का अनुभव कर रहे थे और नवीन ज्ञान से भी परिचित हो रहे थे, सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर हिंदू समाज के बौद्धिक और आध्यात्मिक पुनरुत्थान के कार्य का श्रीगणेश किया। हिंदू विचारधारा के इन्ही नेताओं में से कुछ ने प्रार्थना समाज की स्थापना की।
प्रार्थना समाज के आंदोलन ने राजा राममोहन राय द्वारा बंगाल में स्थापित ब्रह्मसमाज (1828) से प्रेरणा ग्रहण की और व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन के स्वस्थ्य सुधार के लिए अपनी सारी शक्ति धार्मिक शिक्षा के प्रचार में अर्पित कर दी। बंबई के पश्चात् धीरे-धीरे इसका विस्तार पुणे, अहमदाबाद, सतारा और अहमदनगर आदि स्थानों में भी हुआ।
प्रार्थना समाज के प्रमुख प्रकाश स्तंभों में आत्माराम पांडुरंग, वासुदेव बाबाजी नौरंगे, रामकृष्ण गोपाल भंडारकर, महादेव गोविंद रानडे, वामन अबाजी मोदक और नारायण गणेश चंदावरकर थे। प्रार्थनासमाज के आलोचकों द्वारा किए गए असत्य प्रचार को मिटाने के लिए इन नेताओं को बहुत संघर्ष करना पड़ा। असत्य प्रचार के अंतर्गत यह कहा जाता था कि प्रार्थना समाज ईसाई धर्म के अनुकरण पर आधारित है और यह देश के प्राचीन धर्म के विरुद्ध है।