History, asked by ranageeta263, 10 months ago

प्रबल जाति
की संकल्पना का वर्णन​

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Answered by nishantroy0thor2005
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मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास (1916-1999) भारत के सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री थे। उन्होने दक्षिण भारत में जाति तथा जाति प्रथा, सामाजिक स्तरीकरण, सांस्कृतीकरण तथा पश्चिमीकरण पर कार्य किया। उन्होने 'प्रबल जाति' (Dominant Caste) की अवधारण प्रस्तुत की। 'मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास' को सन १९७७ में भारत सरकार द्वारा विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये कर्नाटक से हैं।

परिचय

औपचारिक रूप से भारतीय समाजशास्त्र के आदि-पुरुष भले ही न हों, लेकिन स्वतंत्र भारत में इस अनुशासन को उन्होंने अपने सैद्धांतिक योगदान, जाति की विलक्षण समझ और सहभागी प्रेक्षण की पद्धति के इस्तेमाल से जितना समृद्ध किया है वह उन्हें देश के शीर्षतम समाज-विज्ञानियों में शामिल करने के लिए पर्याप्त है। समाजशास्त्र में उन्हें संस्कृतीकरण, प्रभुत्वशाली जाति और वोट बैंक जैसी मौलिक प्रस्थापनाओं के लिए जाना जाता है। श्रीनिवास संस्थाओं के निर्माता भी थे। बड़ौदा और दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के विभागों की स्थापना का श्रेय उन्हीं को जाता है। शोध और अध्ययन के उच्चस्तरीय संस्थानों की स्थापना और दिशा-निर्देशन के लिहाज़ से भी भारतीय समाजशास्त्र के विकास में उनका योगदान कालजयी माना जाएगा। ग्रामीण समुदाय और जाति की संरचना के विशिष्ट अध्ययन के अलावा एम.एन. श्रीनिवास ने विज्ञान के सामाजिक प्रभाव, गाँधी के धार्मिक चिंतन, मानवशास्त्र के इतिहास से लेकर जेंडर जैसे विषयों पर भी विचारोत्तेजक काम किया है।

श्रीनिवास का कृतित्व वस्तुनिष्ठ पर्यवेक्षण, विश्लेषण की महीनताओं तथा सैद्धांतिक गहराई का दुर्लभ संगम माना जाता है। उनका लेखन अंतर-विषयकता को एक ख़ास तरह का ज़मीनी संदर्भ प्रदान करता है। श्रीनिवास की समाजशास्त्रीय दृष्टि घटनाओं की बाहरी बनावट को भेद कर उन्हें गढ़ने वाली संरचनाओं और ऐतिहासिक शक्तियों की थाह लेती है। सामुदायिक जीवन के बारीक ब्योरों और अंतर्दृष्टियों को सरल भाषा में प्रस्तुत करने की उनकी क्षमता उन्हें समकालीन समाजशास्त्रियों से एक अलग व्यक्तित्व प्रदान करती है। इस अर्थ में वे विषयगत शब्दावली का अतिक्रमण करते हुए साधारण और प्रचलित भाषा को चुनते हैं। इसे उनकी विद्वत्ता का जनवाद ही कहा जाएगा कि उनकी सैद्धांतिक अवधारणाएँ अपने कूटार्थों में उलझाने के बजाय विषय को समझने में ज़्यादा मदद करती हैं। श्रीनिवास ने विचाराधारा के स्तर पर भारतीय समाजशास्त्र के लिए एक नयी ज़मीन तैयार की। उल्लेखनीय है कि जिस दौर में श्रीनिवास भारतीय समाज के अध्ययन की तैयारी कर रहे थे उस समय समाज-विज्ञानों पर अमेरिकी और ब्रिटिश अकादमिक प्रस्थापनाएँ हावी थी। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रचलित दृष्टिकोण भारतीय उपमहाद्वीप के समाज को समझने के लिए संस्कृतनिष्ठ परम्पराओं पर ज़ोर देता था। इसके असर में भारतीय समाजशास्त्री समकालीन यथार्थ के अध्ययन के लिए संस्कृत के स्रोतों और भारत- विद्या/इण्डोलॅजी को ज़्यादा प्रामाणिक मानते थे। श्रीनिवास पहले समाजशास्त्री थे जिन्होंने इस वर्चस्वकारी स्थिति को चुनौती दी। उन्होंने अपने लेखन से साबित किया कि समाजशास्त्र में समाज के वास्तविक कार्यकलापों और गतिविधियों का अध्ययन शास्त्रीय संदर्भों पर निर्भर रहने से ज़्यादा श्रेयस्कर है। श्रीनिवास द्वारा प्रस्तुत प्रभुत्वशाली जाति तथा संस्कृतीकरण की अवधारणाओं का राजनीति विज्ञानियों के अलावा इतिहास-लेखन की सबाल्टर्न जैसी धाराओं के इतिहासकारों ने व्यापक प्रयोग किया गया है। इस अर्थ में उनके कृतित्व को एक बौद्धिक परम्परा की श्रेणी में रखा जा सकता है जो नये-पुराने विद्वानों के लिए एक ज़रूरी संदर्भ की हैसियत हासिल कर चुका है। प्रसंगवश, प्रभुत्वशाली जाति की अवधारणा संख्या बल, भू-स्वामित्व, शिक्षा और नौकरी जैसे कारकों के कारण किसी जाति के गाँव या क्षेत्र विशेष में दबदबे को जाहिर करती है तो संस्कृतीकरण निम्न जातियों द्वारा उच्च जातियों ख़ास तौर पर ब्राह्मण वर्ग की संस्कृति, रीति-रिवाज़ों, भाषा और वेशभूषा आदि को अपनाने की प्रवृत्ति को ज्ञापित करती है। हाल

 

कई समकालीन समाजशास्त्री श्रीनिवास के कृतित्व को राष्ट्रवादी समाजशास्त्र के बृहत्तर संदर्भ में रखकर आँकने का आग्रह करते रहे हैं। उनका कहना है कि स्वतंत्र भारत का शहरी अभिजन औपनिवेशिक शासन के आधुनिकीकरण की परियोजना को जारी रखना चाहता था। इसलिए राष्ट्रवादी समाजशास्त्रियों के कृतित्व में चिंतन और विचार की वही औपनिवेशिक सरणियाँ सक्रिय थी जिनके आधार पर ब्रिटिश सत्ता अपने शासन को वैध ठहराती आयी थी। इन विद्वानों का कहना है कि जाति और समुदाय पर केंद्रित श्रीनिवास जैसे समाजशास्त्रियों का कृतित्व एक अखिल भारतीय संस्कृतवादी हिंदू धर्म की समझ को पीठिका प्रदान करता है। लेकिन श्रीनिवास की दृष्टि को प्रकट या अप्रकट तौर पर ब्रिटिश या अमेरिकी मानवशास्त्र की स्थापनाओं से निर्देशित बताना जल्दबाजी की दलील है जो सुबूतों की कमी के बावजूद आरोप पत्र तैयार करने की हिमाकत करती है। यह दलील श्रीनिवास के कृतित्व की उस प्रवृत्ति को लक्षित करने में चूक करती है जिसमें श्रीनिवास समुदाय का अध्ययन करते हुए समुदाय और अपने संबंधों के द्वैत पर भी विचार करते हैं। श्रीनिवास समाजशास्त्र और मानवशास्त्र की बुनियादी प्रस्थापनाओं पर भी ठीक इसी तरह विचार करते हैं। ग़ौरतलब है कि श्रीनिवास सहभागी अध्येता के तौर पर ख़ुद को एक ऐसे अध्येता के रूप में परिभाषित करते हैं जिसकी इयत्ता अपने विषय यानी लोगों से अलग नहीं है। श्रीनिवास जिन लोगों या समुदाय का अध्ययन करते थे उन्हें वे अन्य की श्रेणी में नहीं रखते थे।

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