प्रगतिवादी की विशेषताएं
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समाज और समाज से जुड़ी समस्याओं यथा गरीबी,अकाल,स्वाधीनता,किसान-मजदूर,शोषक-शोषित संबंध और इनसे उत्पन्न विसंगतियों पर जितनी व्यापक संवेदनशीलता इस धारा की कविता में है,वह अन्यत्र नहीं मिलती। यह काव्यधारा अपना संबंध एक ओर जहां भारतीय परंपरा से जोड़ती है वहीं दूसरी ओर भावी समाज से भी। वर्तमान के प्रति वह आलोचनात्मक यथार्थवादी दृष्टि अपनाती है। प्रगतिवादी काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियां इस प्रकार हैं:-
1. सामाजिक यथार्थवाद : इस काव्यधारा के कवियों ने समाज और उसकी समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया है। समाज में व्याप्त सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक,राजनीतिक विषमता के कारण दीन-दरिद्र वर्ग के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि के प्रसारण को इस काव्यधारा के कवियों ने प्रमुख स्थान दिया और मजदूर,कच्चे घर,मटमैले बच्चों को अपने काव्य का विषय चुना।
सड़े घूर की गोबर की बदबू से दबकर
महक जिंदगी के गुलाब की मर जाती है
...केदारनाथ अग्रवाल
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ओ मजदूर! ओ मजदूर!!
तू सब चीजों का कर्त्ता,तू हीं सब चीजों से दूर
ओ मजदूर! ओ मजदूर!!
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श्वानों को मिलता वस्त्र दूध,भूखे बालक अकुलाते हैं।
मां की हड्डी से चिपक ठिठुर,जाड़ों की रात बिताते हैं
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युवती की लज्जा बसन बेच,जब ब्याज चुकाये जाते हैं
मालिक जब तेल फुलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते है
पापी महलों का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण ---दिनकर
2. मानवतावाद का प्रकाशन : वह मानवता की अपरिमित शक्ति में विश्वास प्रकट करता है और ईश्वर के प्रति अनास्था प्रकट करता है;धर्म उसके लिए अफीम का नशा है -
जिसे तुम कहते हो भगवान-
जो बरसाता है जीवन में
रोग,शोक,दु:ख दैन्य अपार
उसे सुनाने चले पुकार
3.क्रांति का आह्वाहन: प्रगतिवादी कवि समाज में क्रांति की ऐसी आग भड़काना चाहता है,जिसमें मानवता के विकास में बाधक समस्त रूढ़ियां जलकर भस्म हो जाएं-
देखो मुट्ठी भर दानों को,तड़प रही कृषकों